वे सभी सामग्री जो जीवों द्वारा ग्रहण किये जाने के बाद उनके जैविक क्रियाओं हेतु उर्जा प्रदान करता है, उसके शारीरिक वृद्धि में सहायता करता है तथा शारीरिक क्रियाओं पर नियन्त्रण तथा शरीर के लिए आवश्यक यौगिकों के बनाने में सहयोग प्रदान करते हों, भोजन कहलाते हैं. भोजन जीवों के जैविक प्रक्रियाओं के लिए आवश्यक उर्जा का एक मात्र स्रोत है. भोजन हमारे शरीर को पोषित करता है किन्तु भोजन कहा सकने वाला हर पदार्थ भिन्न-भिन्न पोषण योग्यता एवं क्षमता रखता है एक ही पदार्थ विभिन्न जीवों के लिए गृहणीय अथवा अगृहणीय हो सकता है.
खाद्य पदार्थों अर्थात भोजन को स्रोतों के आधार पर दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
पादप उत्पाद: जिन खाद्य पदार्थों के लिए मनुष्य पेड़-पौधों पर निर्भर करता है, पादप उत्पाद कहलाते हैं. जैसे फल, सब्जियां, अनाज, मशाले, पेय पदार्थ आदि.
जंतु उत्पाद: मनुष्य भोजन के लिए पौधों के साथ-साथ जंतुओं पर भी निर्भर रहता है. जंतुओं से प्राप्त भोजन में मांस, मछली, अंडे आदि.
शरीर को पोषण प्रदान करने वाला भोजन अनेकों रासायनिक पदार्थों का संयोजन है, इन रसायनों को 6 प्रमुख वर्गों में बनता गया है जिन्हें हम पौष्टिक तत्वों के नाम से जानते हैं. ये पौष्टिक तत्व है:
कार्बोहाइड्रेट
प्रोटीन
वसा
विटामिन
खनिज लवण
जल
विभिन्न भोज्य पदार्थों में इनकी मात्रा व गुणात्मकता में भिन्नता होती है कुछ भोज्य पदार्थों में कोई पोषक तत्व अधिक मात्रा में होता है परन्तु कुछ में उसका गुण उत्तम वाला होता है इस प्रकार अलग-अलग भोज्य पदार्थ अलग-अलग तत्वों के उत्तम, मध्यम व निम्न स्त्रोत होते है
कार्बोहाइड्रेट
मनुष्य के भोजन का यह एक प्रमुख अवयव है जिसमें सबसे ज्यादा उर्जा निहित होती है. चावल, गेहूं, दाल, आलू आदि में कार्बोहाइड्रेट स्टार्च के रूप में विधमान रहता है. यह स्टार्च बहुत सारे शर्करा के अणुओं के इकठ्ठा होने से बनता है इसलिए इसे शर्करा का बहुलक भी कहा जाता है.भोजन के इस अवयव का पहले पाचन होता है फिर छोटे-छोटे शर्करा के कानों में टूट जाता है जिसका कोशिकाओं में ऑक्सीजन की उपस्थिथि में ऑक्सीकरण होता है एवं ये कार्बन डाइऑक्साइड, जल एवं उर्जा में टूट जाते हैं.
कार्बोहाइड्रेट के कार्य: शरीर के अन्दर होने वाली लगभग सभी क्रियाओं के लिए उर्जा का मुख्य स्रोत कार्बोहाइड्रेट ही है.
महत्वपूर्ण तथ्य:
मानव शरीर में ग्लाइकोजेन एवं स्टार्च के रूप में उर्जा संग्रहित रहती है जिसका आपातकालीन समयों में उपयोग किया जाता है.
इसकी कमी से मनुष्य की कार्य करने की क्षमता में कमी आती है
बहुत ज्यादा कार्बोहाइड्रेट ग्रहण करने से सुस्ती एवं आलस्य बढ़ता है.
प्रोटीन
प्रोटीन शब्द का निर्माण लैटिन भाषा के ‘प्रोटियो’ से हुआ है जिसका अर्थ होता है प्रमुख महत्व वाला, यह तत्व जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. प्रोटीन मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं- एंजाइमेटिक तथा संरचनात्मक प्रोटीन. एंजाइमेटिक प्रोटीन शरीर में होने वाली सभी मेटाबोलिक क्रियाओं को संपन्न कराने में मदद करता है, जैसे- जटिल कार्बोहायड्रेट से उर्जा की प्राप्ति कई स्तरों से गुजरने के बाद होती है. संरचनात्मक प्रोटीन शरीर के विभिन्न भागों को बनाने एवं टूट-फूट को ठीक करने के काम आता है.
महत्पूर्ण तथ्य:
पेशी, त्वचा, बाल, नाख़ून, आदि सभी प्रोटीन के बने होते हैं.
लाल रक्त्कानिकाओं में पाया जाने वाला हीमोग्लोबिन भी प्रोटीन का बना होता है जो ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड के आदान प्रदान का मुख्य कार्य करता है
प्रोटीन भी एक बहुलक है जो बहुत सारी इकाइयों से मिलकर बनी होती है जिसे एमिनो अम्ल कहा जाता है.
मांस, मछली, दूध, अंडे, दालें प्रोटीन के मुख्य स्रोत हैं.
सोयाबीन प्रोटीन का सबसे अच्छा स्रोत माना जाता है
मानव शरीर में जल के बाद प्रोटीन सबसे अधिक मात्रा में पाया जाता है
प्रोटीन की अधिकांश मात्रा माँसपेशीय ऊतकों में पाई जाती है तथा शेष मात्रा रक्त, अस्थियाँ, दाँत, त्वचा, बाल, नाखून तथा अन्य कोमल ऊतकों आदि में पाई जाती है
शरीर में पाई जाने वाली कुल प्रोटीन का 1/3 हिस्सा माँसपेशियों में, 1/5 हिस्सा अस्थियों, उपास्थियों दाँतों, त्वचा में पाया जाता है तथा शेष भाग अन्य ऊतकों व शरीर के तरल द्रवों जैसे रक्त – हीमोग्लोबिन लसीका, ग्रन्थिस्त्राव, मस्तिष्क – मेरू तरल, श्लेष्मक तरल में पाया जाता है
कोशिकाओं के केन्द्रक में भी प्रोटीन न्यूक्लियो – प्रोटीन के रूप में पाया
प्रोटीन के कार्य:
उपापचय की क्रिया को संपन्न करता है
शारीरिक अवयवों के निर्माण में मुख्य भूमिका ऐडा करता है.
शरीर में होने वाले टूट-फूट की मरम्मत करता है
मृत कोशिकाओं एवं उत्तकों को बदलता है
शरीर की वृद्धि करता है
वसा (Fats)
कार्बोहाइड्रेट व प्रोटीन की भाँति ही वसा भी भोजन के आवश्यक पोषक तत्व हैं वसा भोज्य पदार्थों में पाये जाने वाली वह चिकनाई है जिसके लिए हमें जन्तु व वनस्पति दोनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है जन्तुओं के शरीर में चर्बी के रूप में तथा वनस्पति पदार्थ जैसे – अनाज, बीज व फलों में तेल के रूप में पायी जाती है वसा शरीर में ऊर्जा प्रदान करने वाले महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं इनका ऊर्जा मूल्य कार्बोहाइड्रेट में दुगने से भी अधिक होता है प्रायः कार्बोहाड्रेट की अपेक्षा वसा दुगनी मात्रा से भी अधिक ऊर्जा उत्पादित करते है कार्बोहाइड्रेट के 1 ग्राम से जहाँ 4 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है वहीं 1 ग्राम वसा से 9 कैलोरी ऊर्जा उत्पन्न होती है
महत्वपूर्ण तथ्य:
वसा एक कार्बनिक यौगिक है वसा का संगठन कार्बन (C), हाइड्रोजन (H), तथा ऑक्सीजन (O) तत्वों के रासायनिक संयोग से होता है
वसा का निर्माण किसी एक ग्लिसरॉल पदार्थ एक वसीय अम्ल के संयोजन से होता है वसा में कार्बन, हाइड्रोजन की अपेक्षा ऑक्सीजन तत्व काफी कम मात्रा में संयुक्त होते है
हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन का अनुपात जहाँ कार्बोहाइड्रेट में 1 : 2 होता है वहीं वसा में यह अनुपात 1 : 3 से 1 : 7 तक होता है संभवतः वसा के इसी गुण के कारण इसमें अधिक ऊर्जा देने की शक्ति होती है
वसा युक्त पदार्थ यदि 20 डिग्री सेंटीग्रेड ताप पर भी ठोस ही बने रहें तो वह वसा का रूप है, जबकि यदि इसी तापक्रम पर तरल रूप में रहें तो यह तेल कहलाता है
वसा के कार्य:
उर्जा की उत्पति में उपयोगी होती है
कोशिका झिल्ली की संरचना में मुख्य भूमिका निभाता है.
संचित उर्जा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है
विटामिन
विटामिन एक अति आवश्यक रसायन है जो शरीर में होने वाले सामान्य चयापचय (Metabolism) की क्रियाओं की निरंतरता को बनाये रखता है. यह शरीर के सामान्य वृद्धि एवं विकास के लिए अति आवश्यक है. विटामिन शब्द 1912 में सर्वप्रथम फंक (Funk) नामक वैज्ञानिक द्वारा प्रस्तावित किया गया। जीवन के लिए आवश्यक सुरक्षात्मक तत्व होने के कारण इसका नाम Vitamine (Vital + Amines) दिया गया।
सन 1915 में मैकालम नामक वैज्ञानिक ने इन विटामिनो में से कुछ को जल में घुलनशील पाया तथा कुछ को वसा में घुलनशील। इसी आधार पर विटामिन का वर्गीकरण किया गया।
जल में घुलनशील विटामिन –
विटामिन ‘बी’ (काम्प्लैक्स)
विटामिन ‘सी’
वसा में घुलनशील विटामिन –
विटामिन ‘ए’
विटामिन ‘डी’
विटामिन ‘ई’
विटामिन ‘के’
जल में घुलनशील विटामिन
विटामिन ‘बी’ (Vitamin B)
यह एक विटामिन न होकर कई विटामिनों का समूह है। इन सबको सम्मिलित रूप से ‘बी ‘काम्पलैक्स कहते हैं। इस समूह के विटामिन निम्न प्रकार है।
विटामिन ‘बी 1‘ या थायमिन (Thiamine)
1926 में डोनथ व जैक्सन ने चावल की ऊपरी पर्त में से इस विटामिन को पृथक किया जिससे बेरी-बेरी रोग का सफलतापूर्वक उपचार किया गया। गंधक की उपस्थिति के कारण इसका नाम थायमिन रखा।
विटामिन B 1 के कार्य:
यह विटामिन कार्बोहाइड्रेट के चयापचय में सहायक होता है।
पाचन संस्थान की माँसपेशियों की गति को सामान्य रखता है जिससे भूख सामान्य रहती है।
तन्त्रिका तन्त्र के भली-भाँति कार्य करने में इसकी उपस्थिति अनिवार्य है।
प्राप्ति के स्रोत:
अनाज व दालों के बीजांकुर, खमीर व सूखे मेवे, माँस, मछली, अण्डा, दूध व दूध से बने पदार्थों में भी यह विटामिन उचित मात्रा में पाया जाता है।
विटामिन ‘बी6’ (Vitamin 6 or Pyridoxin)
स्टीलर ने 1939 में इसे संश्लेषित किया इसके रूप को पायरीडॉक्सिन कहते हैं। यह शरीर में को- एन्जाइम की भाँति कार्य करने वाला विटामिन है।
पायरीडॉक्सिन के कार्य:
यह नाड़ी संस्थान व लाल रक्त कणिकाओं को स्वस्थ बनाए रखता है
यह ट्रिप्टोफेन अमीनो एसिड को नायसिन में परिवर्तित करने में सहायक हैं।
प्राप्ति के स्रोत:
सूखी खमीर, गेहूँ के बीजांकुर, माँस, यकृत, दालें, सोयाबीन, मूँगफली, अण्डा, दूध, दही, सलाद के पत्ते, पालक आदि इसके प्रमुख स्रोत हैं।
विटामिन ‘बी’12 (Vitamin B12 or Cyanocobalamine)
विटामिन बी 12 को कोबामाइड, एंटीपरनीशियस एनीमिया फेक्टर, एक्स्ट्रीन्सीक फेक्टर ऑफ केस्टल के नामों से भी संबोधित करते है। मनुष्य को इसकी पूर्ति के लिए भोजन पर निर्भर रहना पड़ता है किन्तु कुछ प्राणी आँतों में इसका निर्माण कर सकते हैं। ये पौधों में नहीं मिलता है।
कार्य:
यह प्रोटीन के चयापचय में सहायक होता है।
अस्थि मज्जा में रक्त कोशिकाओं के निर्माण में सहायक है।
नाड़ी ऊतकों की चयापचयी क्रिया में सहायक है।
स्रोत : यकृत ,अण्डा ,माँस ,मछली ,दूध आदि है।
विटामिन ‘सी‘ (Vitamin ‘C’ or Ascorbic Acid)
स्कर्वी रोग को दूर करने के कारण इस विटामिन का नाम एस्कार्बिक एसिड पड़ा।
विटामिन ‘सी ‘के कार्य :
यह दाँत ,अस्थियों व रक्त वाहिनियों की दीवारों को स्वस्थ रखता है।
घाव को भरने में सहायता करता है।
यह लोहे के फैरिक को फैरस आयन में बदल देता है ,जिससे यह आँत में शीघ्रता से शोषित हो सके।
बच्चों में विटामिन ‘सी ‘की कमी से छाती में दर्द रहता है व श्वाँस लेने में परेशानी होती रहती है।
विभिन्न रोगों में निरोधक क्षमता बढ़ाता है।
एड्रीनल ग्रन्थि में हार्मोन के संश्लेषण में महत्त्वपूर्ण कार्य करता है।
यह विटामिन विभिन्न कोशिकाओं को जोड़ने वाला पदार्थ कालेजन के निर्माण में सहायक है, जो कि शरीर के समस्त अंगों व हड्डियों में पाया जाता है।
इस विटामिन की हीनता से मनुष्य की हड्डियाँ खोखली हो जाती हैं।
‘प्राप्ति के स्त्रोत :
आँवला, अमरुद ताजे ,रसीले व खट्टे फलों जैसे -नीबू ,नारंगी व संतरा में यह प्रचुर मात्रा में मिलता है। अंकुरित अनाजों व दालों में भी यह उपस्थित रहता है।
दूध व माँस में इसकी अल्प मात्रा रहती है।
वसा में घुलनशील विटामिन
विटामिन ‘ए’ (Vitamin A)
यह मुख्यतः वनस्पति के हरे रंग क्लोरोफिल से संबंधित है। पीले फल व सब्जियों में पाया जाने वाला कैरटिनोयाड्स वर्णक विटामिन ‘ए’ के लिए प्री-विटामिन है। इस विटामिन को रेटिनॉल भी कहते हैं। इसे वनस्पतियों में में पाये जाने वाले पदार्थ कैरोटीन (Carotene)से प्राप्त किया जाता हैं। इसे विटामिन A का प्रीकर्सर कहते हैं।
प्राप्ति के स्रोत:
यह उन साग-सब्जियों में पाया जाता है जो पीले व लाल रंग के हों ;जैसे टमाटर, गाजर, पपीता, शकरकंद, आम, आड़ू, मटर व हरी पत्तेदार सब्जियाँ (धनिया, शलजम, पोदीना, चुकंदर )आदि में।
मुख्य रूप से मछली के यकृत के तेल में मिलता हैं। इसके अतिरिक्त यह अण्डा, दूध व मक्खन आदि में पर्याप्त मात्रा में मिलता है।
विटामिन ‘ए ‘के कार्य –
विटामिन ‘ए’ कमी रहने से रात्रि अन्धापन हो जाता है। जिसमें व्यक्ति धीमे प्रकाश में कुछ भी देखने में असमर्थ रहता है।
यह एपिथीलियम ऊतकों की कार्यक्षमता व क्रियाशीलता बनाए रखता है
यह श्लेष्मा स्त्राव में सहायक कारकों के निर्माण में सहायता करता हैं,जिससे कि ऊतकों की स्थिरता बनी रहती हैं।
यह ऊतक जीभ, नेत्र, श्वसन नली, मुख गुहा, प्रजनन व मूत्र संबन्धी नलियों आदि की आन्तरिक भित्ति का निर्माण करते हैं।
विटामिन बाह्य त्वचा की कोशिकाओं को चिकना व कोमल बनाए रखती हैं।
विटामिन ‘ए ‘की कमी से नेत्रों की बाहरी पर्त कार्निया मुलायम पड़ जाती हैं। इस रोग को कैराटोमलेशिया कहते हैं।
विटामिन ‘के‘ (Vitamin K)
विटामिन ‘के ‘ की खोज सर्वप्रथम डॉ. डेम ने 1933 में की थी। यह विटामिन रक्त स्राव को रोककर रक्त का थक्का जमाने में सहायक होता है। इसी विशेषता के कारण इस विटामिन का नाम रक्त का थक्का जमाने वाला विटामिन भी रखा गया।
प्राप्ति के स्रोत :
विभिन्न वनस्पतियों जैसे गोभी,सोयाबीन,हरे पत्ते वाली सब्जियों, आदि
विटामिन ‘ई’ (Vitamin E)
विटामिन ‘ई ‘ मनुष्य व जन्तुओं में प्रजनन संस्थान की क्रियाशीलता हेतु आवश्यक होता हैं। प्रजनन संस्थान के कार्यों को नियन्त्रित करने वाला यह विटामिन बाँझपन को दूर करता है। इसी विशेषता के कारण इसे बाँझपन विरोधी के रूप में भी जाना जाता है।
प्राप्ति के स्रोत :
नारियल ,अलसी ,सरसों ,बिनौला आदि के तेल, वनस्पति तेलों व वसाओं में इसकी अच्छी मात्रा उपस्थित रहती है। इसके अतिरिक्त यह विटामिन यकृत अण्डा ,अंकुरित ,अनाज ,माँस ,मक्खन में भी पाया जाता है। फल व सब्जियों में इसकी अल्प मात्रा रहती है।
विटामिन ‘ई ‘के कार्य:
यह विटामिन प्रजनन क्षमता को विकसित करता है
इसकी कमी से बाँझपन आता है
इसकी कमी से पुरूषों के शुक्राणु का बनना रूक जाता है
स्त्री के शरीर में भ्रूण गर्भ में ही मर जाते हैं।
विटामिन ‘ई ‘लाल रक्त कणिकाओं के ऑक्सीकारक पदार्थों को टूटने -फूटने से रोकता है और उनकी जीवन अवधि बढ़ाता है।
विटामिन ‘डी’ (Vitamin D)
सूर्य की अल्ट्रावॉयलट किरणों के प्रभाव से शरीर में संश्लेषित हो सकने की क्षमता के कारण इसे धूप का विटामिन भी कहा जाता हैं।
प्राप्ति के स्रोत :
यह विटामिन मुख्य रूप से मछली के यकृत के तेल में पाया जाता हैं इसके अतिरिक्त अण्डा,दूध,पनीर में भी इसकी प्राप्ति होती है। विटामिन ‘डी ‘ की कुछ मात्रा हमारे शरीर में धूप द्वारा भी पहुँचती रहती हैं। जब प्रकाश की अल्ट्रावॉयलट किरणें त्वचा में उपस्थित कॉलेस्ट्रोल पर पड़ती हैं तो विटामिन ‘डी ‘का निर्माण होता है।
विटामिन ‘डी ‘ के कार्य:
विटामिन ‘डी ‘शरीर में कैल्शियम व फॉस्फोरस के आंत्र में शोषण को नियन्त्रित करता है।
विटामिन ‘डी ‘की कमी से कैल्शियम व फॉस्फोरस का अवशोषण कम हो जाता है जिससे ये तत्व शरीर में मल पदार्थों के साथ उतसर्जित हो जाते हैं।
शरीर की उचित वृद्धि हेतु विटामिन ‘डी ‘अत्यन्त ही महत्वपूर्ण तत्व है।
विटामिन ‘डी ‘मुख्य रूप से अस्थियों के निर्माण में मदद करता हैं।
विटामिन ‘डी ‘ दाँतों के स्वस्थ विकास हेतु भी आवश्यक है। इसकी कमी से दाँतों के डेन्टीन व ऐनामेल का स्वास्थ्य प्रभावित होता है जिससे दाँत शीघ्र ही खराब हो जाते हैं।
विटामिन ‘डी ‘पैराथायराइड ग्रन्थि की क्रियाशीलता को नियन्त्रित करता है।
यह पेशी और तन्त्रिका तन्त्र को कार्यशील रखता है।
चेचक और काली खाँसी से बचाव करता है।
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