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Monday, May 21, 2018

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 National Curriculum Framework (NCF-2005)

  • बालकों को क्या और कैसे पढ़ाया जाए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 इन्हीं विषयों पर ध्यान केन्द्रित कराने हेतु एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
  • राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 (NCF-2005) का उद्धरण रवीन्द्रनाथ टैगोरे के निबंध ‘‘सभ्यता और प्रगति‘‘ से हुआ है। जिसमें उन्होंने बताया हैकि सृजनात्मकता और उदार आनंद बचपन की कुंजी है।
  • राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के दस्तावेज ने पाठ्यचर्या के निर्माण के लिए पॉच निर्देशक सिद्धान्तों का प्रस्ताव रखा है।
  • ज्ञान को स्कूल के बाहर के जीवन से जोड़ना।
  • पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो यह सुनिश्चित करना।
  • पाठ्यचर्या का इस तरह संवर्द्धन कि वह बच्चों के चहुंमुखी विकास के अवसर मुहैया करवाए, बजाय इसके कि पाठ्य पुस्तक केन्द्रित बन कर रह जाए।
  • परीक्षा को अपेक्षकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना।
  • एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास जिमें प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रीय चिंताएं समाहित हों।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा को 5 भागों में बॉटकर वर्णित किया गया है

  1. परिप्रेक्ष्य
  2. सीखना और ज्ञान
  3. पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएं और आंकलन
  4. विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण
  5. व्यवस्थागत सुधार


परिप्रेक्ष्य-( Perspective)

  • शिक्षा बिना बोझ के सूझ आधार पर पाठ्यचर्या का बोझ कम करना।
  • पढाई को रंटत प्रणाली से मुक्त रखते हुए स्कूली ज्ञान को बाहरी जीवन से जोड़ा जाना।
  • पाठ्यक्रम का इस प्रकार संवर्द्धन किया जाना जिससे बच्चों का चहुमुंखी विकास हो।
  • ऐसे नागरिक का निर्माण करना, जौ लैंगिक न्याय, मूल्यों, लोकतांत्रिक व्यवहारों, अनुसूचित-जनजातियों, और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति संवेदनशील हों।
  • ऐसे नागरिक वर्ग का निर्माण करना जिनमें राजनीतिक एवं आर्थिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की क्षमता हो।

सीखना और ज्ञान-(Learning and Knowledge)

  • समाज में मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा, विद्यार्थीं में अपना ज्ञान सृजित करने की स्वाभाविक क्षमता को विकसित करती है।
  • बाल केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों के अनुभवों, उनके स्वारों और उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देना।
  • संज्ञान का अर्थ है कर्म है कर्म व भाषा के माध्यम से स्वंय और दुनिया को समझना।
  • विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र, विभिन्न मुद्दों पर उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, तथा नैतिक पहुओं के संदर्भ में आलोचनात्मक चिंतन का अवसर प्रदान करना।
  • अवलोकन, अन्वेषण, विश्लेषणात्मक विमर्श तथा ज्ञान की विषय-वस्तु विद्यार्थियों की सहभागिता के प्रमुख क्षेत्र।

पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएं और आंकलन-(Scope of curriculum, stages of school and assessment) 

  • बहुभाषिता एक ऐसा संसाधन है जिसकी तुलना सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य राष्ट्रीय संसाधन से की जा सकती है।
  • प्रत्यक्षीकरण तथा तिरूपण जैसे कौशलों के विकास मे गणित बहुत सहायक सिद्ध हुई है।
  • सामाजिक विज्ञान शिक्षण अंतर्गत् एक ऐसी पाठ्यचर्या का होना आवश्यक है, जो शिक्षार्थियों में समाज के प्रति आलोचनात्मक समझ का विकास कर सके।
  • आकलन का मुख्य प्रयोजन सीखने सिखाने की  प्रक्रियाओं एवं सामग्री में सुधार लाना तथा उन लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना है जो स्कूल के विभिन्न चरणें के लिए तैयार किए जाते हैं।
  • पूर्व प्राथमिक स्तर पर आकलन बच्चों की दैनिक गतिविधियों, स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर आधारित होना चाहिए।

विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण-(Environment of school and class)

  • चेतन और अचेतन दोनों रूप से बच्चे हमेसा विद्यालय के भौतिक वातावरण से निरंतर अन्तःक्रिया करते रहते हैं।
  • कक्षा का आकार शिक्षण अधिगम क्रिया को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। किसी भी अवस्था में शिक्षक तथा शिक्षार्थियों का अनुपाता 1ः30 से अधिक नहीं होना चाहिए।
  • अनुशासन ऐसा होना चाहिए जो कार्य सम्पन्न होने में मदद करे साथ ही बच्चों की सक्षमता को बढ़ाए।

व्यवस्थागत सुधार-(Organised amendment)

  • बच्चों की शिक्षा व्यवस्था में विकासात्मक मानकों का प्रयोग किया जाना चाहिए, जो अभिप्रेरणा तथा क्षमता की समग्र वृद्धि की पूर्व मान्यता पर आधारित हो।
  • पाठ्यचर्या को इस प्रकार निर्मित करना  चाहिए जिसमें शिक्षक शिक्षार्थियों को खेलते तथा काम करे हुए प्रत्यक्ष रूप से अवलोकित कर सके।
  • काम केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों में उनके परिवेश, प्राकृतिक संसाधनों, तथा जीविका से संबंधित ज्ञान आधारों, सामाजिक अर्न्दृष्टियों तथा कौशलोें को विद्यालयी व्यवस्थामें उनकी गरिमा और मजबूती के स्त्रोतों में बदलना।

स्मरणीय तथ्य-

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 में शिक्षक की भूमिका एक उत्प्रेरक के रूप में है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के अनुसार बच्चों के आकलन का दैनिक गतिविधियों का तरीका सही है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के अनुसार प्राथमिक स्तर पर भाषा का माध्यम मातृभाषा में होना चाहिए।

महत्वपूर्ण पुस्तकें एवं उनके लेखक- मनोविज्ञान{ Important Books and Author of Psychology}

  1. प्रिसिपल्स ऑफ साइकोलॉजी- विलियम जेम्स
  2. इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स- सिगमंड फ्रायड
  3. हिन्दू साइकोलॉजी- अखिलानन्द
  4. प्रिसिंपल ऑफ साइकोलॉजी- जॉनी डीवी
  5. चाइल्डहुड एंड सोसायटी इन इंडिया- सुधीर कक्कड़
  6. इंडिमेंट एनिमीः द लॉस एंड रिकवरी ऑफ सेल्फ- आशीष नंदी
  7. इन दि माइंडस ऑफ मेन- गार्डनर मर्फी
  8. इंडियानविलेजेज इन ऑजिसन- दुर्गानंद सिन्हा।
  9. ए माइण्ड दैट फाउण्ड इटसेल्फ- क्लीफोर्ड बीयर्स
  10. मोटिवेशन एण्ड पर्सानिलिटी- मास्लो
  11. बियान्ड द प्लेजर प्रिसीपल्स- फ्रायड
  12. इमोशनल इंटेलीजेंस- गॉलमैन
  13. साइकोलॉजी द साइंस ऑफ बिहेवियर- राबर्ट एल आइजैक्सन एवं मैक्स एल हट्ट
  14. साइकोलॉजी आफ द स्टडी ऑफ मैन्स- जेम्स
  15. साइकोलॉजी आफ लर्निंग- आर ए डेविस
  16. द साइकोलॉजी ऑफ इंटेलीजेंस- जीन पियाजे
  17. एडोलसेन्स- स्टेनले हॉल
  18. संवेगात्मक बुद्धिः बुद्धि लब्धि से अधिक महत्वपूर्ण क्यों- डेनियम गोलमैल 1995
  19. इन द माइंडस ऑफ मेन- गार्डनर मर्फी
  20. इमोशनल इंटेलीजेंस- गॉलमेन
  21. बियान्ड द प्लेजर प्रिसीपल्स- फ्रायड
  22. द मिनिंग ऑफ इंटेलीजेंस- जी डी गोडाम्ड
  23. द मेजरमेंट ऑफ इंटेलीजेंस- ई.एल. थार्नडाइक 

मनोविज्ञान,शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ एवं परिभाषा

मनोविज्ञान शब्द का शाब्दिक अर्थ ‘मन का विज्ञान’ है। मनोविज्ञान शब्द का अंग्रेजी समानार्थक शब्द “Psychology” (साइकोलॉजी) है जो की यूनानी (ग्रीक) भाषा के दो शब्दों “Psyche”(साइके) और “Logos”(लोगास) के मिलने से बना है। Psyche (साइके) शब्द का अर्थ “आत्मा” और Logos (लोगास) शब्द का अर्थ होता है “अध्ययन”। अतः Psychology का शाब्दिक अर्थ है – “आत्मा का अध्ययन”।


मनोविज्ञान की परिभाषायें :-

1. वाटसन के अनुसार, “ मनोविज्ञान, व्यवहार का निश्चित या शुद्ध विज्ञान है।”
2. वुडवर्थ के अनुसार, “ मनोविज्ञान, वातावरण के सम्पर्क में होने वाले मानव व्यवहारों का विज्ञान है।”
3. मैक्डूगल के अनुसार, “ मनोविज्ञान, आचरण एवं व्यवहार का यथार्थ विज्ञान है।”
4. क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, “ मनोविज्ञान मानव – व्यवहार और मानव सम्बन्धों का अध्ययन है।”
5. बोरिंग के अनुसार, “ मनोविज्ञान मानव प्रकृति का अध्ययन है।”
6. स्किनर के अनुसार, “ मनोविज्ञान, व्यवहार और अनुभव का विज्ञान है।”
7. मन के अनुसार, “आधुनिक मनोविज्ञान का सम्बन्ध व्यवहार की वैज्ञानिक खोज से है।”
8. गैरिसन व अन्य के अनुसार, “ मनोविज्ञान का सम्बन्ध प्रत्यक्ष मानव – व्यवहार से है।”
9. गार्डनर मर्फी के अनुसार, “ मनोविज्ञान वह विज्ञान है, जो जीवित व्यक्तियों का उनके वातावरण के प्रति
अनुक्रियाओं का अध्ययन करता है।”

क्रमशः मनोविज्ञान के अर्थ में परिवर्तन :-

प्रारम्भिक अवस्था में मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में था लेकिन दर्शनशास्त्र से अलग होने के बाद इसका एक स्वतंत्र विषय के रूप में उदय हुआ। दर्शनशास्त्र से अलग होने की प्रक्रिया में मनोविज्ञान ने अनेक अर्थ ग्रहण किए जिन्हें हम निम्न प्रकार से समझ सकते है :-

1. आत्मा का विज्ञान :- 

16 वीं शताब्दी में मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान कहा गया। इस अर्थ के प्रबल समर्थक प्लेटो, अरस्तु, डेकार्टे आदि दार्शनिक मनोवैज्ञानिक थे। लेकिन आत्मा क्या है? इसकी प्रकृति या स्वरुप क्या है? क्या इसे देखा जा सकता है? मनोवैज्ञानिकों द्वारा इन प्रश्नों के उत्तर देने में असमर्थता के कारण इस परिभाषा को अस्वीकार कर दिया गया।


2. मन का विज्ञान :- 

17 वीं शताब्दी में मनोविज्ञान को मन या मस्तिष्क का विज्ञान कहा गया। इस अर्थ का प्रबल समर्थक पाॅम्पोनाजी था। लेकिन मन या मस्तिष्क क्या है? इसका अध्ययन किस प्रकार किया जा सकता है? इन प्रश्नों के अर्थों को स्पष्ट नहीं कर पाने के कारण मनोविज्ञान का यह अर्थ भी अस्वीकार कर दिया गया।

3. चेतना का विज्ञान :-

 19 वीं शताब्दी में मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान कहा गया। इस अर्थ के प्रबल समर्थक विलियम जेम्स, विलियम वुंट, वाईव्स आदि मनोवैज्ञानिक प्रमुख थे। इन्होंने केवल चेतन मन की ही बात की है, जबकि फ्रायड ने मनोविश्लेषण वाद में चेतन मन के अलावा अचेतन व अर्द्ध चेतन मन के बारे में भी बताया गया है जिस पर इन्होंनें कोई चर्चा नहीं की। अतः मनोविज्ञान का यह अर्थ भी अस्वीकार कर दिया गया।


4. व्यवहार का विज्ञान :-

 20 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में मनोविज्ञान को व्यवहार के विज्ञान के रुप में स्वीकार किया गया। और वर्तमान में मनोविज्ञान के इसी अर्थ को सर्वमान्य अर्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इस अर्थ के प्रबल समर्थक वाट्सन, वुडवर्थ, स्किनर आदि मनोविज्ञानिकों हैं।
मनोविज्ञान के अर्थ परिवर्तन को वुडवर्थ ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :-
“सर्वप्रथम मनोविज्ञान ने अपनी आत्मा को छोडा, फिर अपने मन को त्यागा, फिर अपनी चेतना खोई और अब यह व्यवहार के ढंग को अपनाऐ हुए है।”

शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ :-

शिक्षा मनोविज्ञान दो शब्दों के मिलने से बना है, शिक्षा मनोविज्ञान। जिसका शाब्दिक अर्थ है, “शिक्षा से सम्बन्धित मनोविज्ञान”। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत मनोविज्ञान के संप्रत्ययों, सिद्धांतो तथा विधियों का प्रयोग शैक्षणिक परिस्थितियों को उन्नत बनाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग करना ही शिक्षा मनोविज्ञान कहलाता है।


शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषायें :-

1. स्टीफन के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षणिक विकास का क्रमिक अध्ययन है।”
2. क्रो एण्ड क्रो के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्ति के जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक के अनुभवों का वर्णन तथा व्याख्या करता है।”
3. स्किनर के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत शिक्षा से सम्बन्धित सम्पूर्ण व्यवहार और व्यक्तित्व आ जाता है।”
4. कॉलसनिक के अनुसार, “मनोविज्ञान के सिद्धान्तों व परिणामों का शिक्षा के क्षेत्र में अनुप्रयोग ही शिक्षामनोविज्ञान कहलाता है।”
5. सॉरे व टेलफोर्ड के अनुसार, “शिक्षा मनोविज्ञान का मुख्य सम्बन्ध सीखने से है। यह मनोविज्ञान का वह अंग है, जो शिक्षा के मनोवैज्ञानिक पहलुओं की वैज्ञानिक खोज से विशेष रूप से सम्बन्धित है।”

Sunday, May 20, 2018

शारीरिक एवं संवेगात्मक विकास

किशोर अधिगमकर्ता में शारीरिक विकास

किशोरावस्था (12-18 वर्ष)- इस अवस्था में में व्यक्ति की प्रजनन क्षमता का विकास होता है| reet किशोरावस्था में बालक – बालिकाओं में विकास अत्यंत तीव्र गति से और बहुआयामी होता है|लम्बाई-  बालक 18 वर्ष तक बालिकाए 16 वर्ष तक बढती हैं| किशोरावस्था में बालकों की लम्बाई बालिकाओं से अधिक होती है| लगभग 10 सेमी का अंतर होता है| बालकों की औसत लम्बाई (18 वर्ष) 161.8 सेमी और बालिकाओं की औसत लम्बाई 151.6 सेमी होती है|भार- इस अवस्था में बालकों का औसत भर बालिकाओं से लगभग 4-5 किग्रा. अधिक होता है|  12 वर्ष—बालक -28.5 तथा बालिका-29.8 kg ,18वर्ष—बालक 47.3 और बालिका-43.1 kg,reet2017
दन्त-किशोरावस्था से पूर्व 27-28 दांत हिते है| प्रज्ञादंत(4) किशोरावस्था क अंत में या प्रोढ़ावस्था के प्रारंभ में आते है| सिर तथा मस्तिष्क- विकास की गति मंद हिती है| 16 वर्ष में पूर्ण विकास हो जाता है और मस्तिष्क का भार 1.2 kg-1.4 kg
हड्डियाँ- अस्थिकरण की प्रक्रिया पूर्ण,लचीलापन समाप्त,दृढ़ताआ जाती है | ज्यादातर हड्डियाँ आपस में जुड़कर एक हो जाती है| प्रोढ़ावस्था में 206  हड्डियाँ
माँसपेशियाँ- मांसपेशियों का विकास बहुत ही तीव्र गति से होता है | 18 वर्ष में शारीर के कुल भार का लगभग 45% हो जाता है और मांसपेशियों में दृढ़ता आ जाती है|
अन्य अंग-     समस्त ज्ञानेन्द्रिया (नाक,कान,जीभ,त्वचा,आँख) और कर्मेन्द्रिया(हाथ ,पैर,मुख )का पूर्ण विकास,शरीर सुडोल,बलिओं की त्वचा कोमल,गुप्तांगो का पूर्ण विकास,किशोरियों में कुल्हो,तथा वक्षस्थल का विकास,किशोरों के कंधे चौड़े,मुख पर दाढ़ी तथा मूंछ आने लगते है|,गुप्तांगो और काखो में बालों का उगाना,14-15 वर्ष की अवस्था में किशोरियों में मासिक धर्म का प्रारंभ,थायराइड ग्रंथि के सक्रीय होने से बालकों की आवाज में भारीपन एवम् बालिकाओं की आवाज कोमल,धड़कन की गति में कमी प्रोढ़ावस्था में लगभग 72/min|

संवेगात्मक विकास

संवेग का शाब्दिक अर्थ- उत्तेजित करना,अंग्रेजी- Emotion,लैटिन-Emovere
संवेग व्यक्ति की वह दशा है जिसमे उसकी शारीरिक स्तिथि परिवर्तित होती है तथा वह उत्तेजना महसूस करता है |
“संवेग चेतना की वह अवस्था है जिसमें रागात्मक तत्व की प्रधानता होती |” —-रॉस
“संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है “—वुडवर्थ
गेट्स में 5 संवेग बताये है – भय,क्रोध, प्रेम, दया,कामशक्ति
संवेगों को 2 भागों में बाटा जा सकता है–(1) प्राथमिक संवेग (2) सेल्फ कॉन्शियस संवेग
प्राथमिक संवेग--ये संवेग मानव व पशुओं में पाए जाते है | इनमे भय,दुःख,ख़ुशी,गुस्सा आते है|ये सभी संवेग मानव के जन्म के प्रथम 6 महीनों में उपस्थित हो जाते है|
सेल्फ कॉन्शियस संवेग--संवेगों में कॉन्शियस की आवश्यकता होती है|इनमे शर्मिंदगी,ईष्या,सहानुभूति, आदि संवेग आते है जो कि 1.5-2 वर्ष के बाद शिशु में दिखने लग जाते है|इनके विकसित होने पर बालक सामाजिक मानदंडों और नियमों को ग्रहण करते है | शिशु का सबसे पहला संवेग रोना है उसके बाद हंसना|
संवेगों की विशेषताए
संवेगों की व्यापकता– संवेग सभी ;प्राणियों में पाए जाते है| शारीरिक परिवर्तन– संवेगों के उदय होने पर अस्थायी शारीरिक परिवर्तन होते है| ये शारीरिक परिवर्तन 2 प्रकार के होते है|
1-आतंरिक शारीरिक परिवर्तन –जल्दी जल्दी श्वासलेना,ह्रदय की धड़कन बढ़ जाना
2-बाह्य शारीरिक परिवर्तन-आवाज में परिवर्तन,मुख मंडल का रंग बदलना,अंग सञ्चालन की गति में परिवर्तन
विचार प्रक्रिया का लोप –संवेगों के समय विचार करने की योग्यता कम हो जाती है या लुप्त हो जाती है  व्यक्ति चिंतन,तर्क नहीं कर सकता |
व्यक्तिगतता-–एक ही स्तिथि में भिन्न -भिन्न व्यक्तियों में संवेगों की मात्र भिन्न -भिन्न होती है |
संवेगों की अस्तिरता–संवेगों की प्रकृति अस्थायी होती है  ये कुछ समय बाद स्वतः ही शांत हो जाते है| संवेगों का स्थानांतरण–संवेग कभी कभी अन्य परिस्तिथियों में स्तानान्तरित हो जाते है|
मूल परवर्तियों से सम्बन्ध–संवेगों की उत्पति मूल संवेगों से होती है  मेक्डूगल ने 14 संवेग और 14 मूल प्रवृतिया बताई है |
संवेगों की क्रियात्मक प्रवृति–संवेग से व्यक्ति में कोई न कोई क्रिया अवश्य होती है  आमोद में व्यक्ति हँसता है,क्रोध में भोंहै तन जाती है|
संवेग में सुख- दुःख का भाव निहित होता है| प्रेम वात्सल्य आदि सुखद संवेग-क्रोध भय घृणा आदि दुखद संवेग|
संवेगों के प्रकार– मैकडूगल ने कूल 14 संवेगों का उल्लेख किया है प्रत्येक संवेग की एक मूल प्रवृति होती है|
मूल प्रवृति     संवेग
संतान कामना   वात्सल्य
पलायन   भय
शरणागति                                                                        करुणा
काम प्रवृति कामुकता
जिज्ञासा आश्चर्य
आत्मगौरव आत्म-अभिमान
सामूहिकता एकाकीपन
भोजन तलाश भूख
संग्रहण अधिकार
रचनाधर्मिता कृतिभाव
हास आमोद
युयुत्सा क्रोध
निवृति घृणा
दैन्य आत्महीनता
भारतीय विद्वान् केवल 2 मुख्य संवेगों को स्वीकार करते है|
1 राग   2 द्वेष
1 रागात्मक संवेग—- अपने से बड़ो के प्रति          —    सम्मान,भक्ति,श्रद्धा
अपने बराबर वालों के प्रति- –   मित्रता,प्रेम,आसक्ति
अपने से छोटों के प्रति  —          स्नेह,वात्सल्य,दया
2 द्वेषात्मक संवेग —–अपने से बड़ो के प्रति               –भय,कायरता,घृणा
अपने बराबर वालों के प्रति–     क्रोध,ईष्या,जलन
अपने से छोटों के प्रति——       गर्व,अभिमान,अधिकार
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास-
संवेग (सभी) जन्मजात नहीं होते है ये धीरे धीरे विकास की और अग्रसर होते है|
प्रारंभ में शिशु का संवेग सामान्य उतेजना मात्र है
शिशु का संवेगात्मक व्यवहार अत्यधिक अस्थिर होता है|
आयु बढ़ने के साथ साथ ऋणात्मक संवेगों में कम आती है एवम् धनात्मक संवेगों में बढ़ोतरी होती है| प्रारंभ में शिशु में संवेग अस्पष्ट होते है| लगभग 2 वर्ष की आयु तक शिशु में सभी संवेगों का विकास हो जाता है| फ्रायड के अनुसार शिशु में आत्मप्रेम(नीर्सीसिज्म) की भावना होती है| 4-5 वर्ष बाद बालक में मातृप्रेम या पितृविरोधी(oedipus complex) भावना ग्रंथि का विकास होता है|बालिकाओं में पितृप्रेम या मातृविरोधी(Electra complex) भावना ग्रंथि का विकास होता है|
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास
संवेग की उग्रता में कमी आ जाती है| ईष्या व द्वेष की भावना का विकास हो जाता है| भय का संवेग मुख्य रूप से उपस्थित्त रहता है| निराशा की भावना से पीड़ित रहता है| परिवार समाज विद्यालय द्वारा बांये गए नियमों से बालक स्वयं को बंधक मानता है| जिज्ञासा प्रवृति बहुत ज्यादा होती है| क्रोध का सवेग भी प्रबल हो जाता है|
मुख्य संवेग जो बाल्यावस्था में स्पष्ट रूप से दिखाई दते है–  भय निराशा चिंता व्यग्रता कुंठा स्नेह हर्ष प्रफुल्लता
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास
किशोरावस्था का आगमन संवेगात्मक व्यवहार में आये तीव्र परिवर्तनों से ही परिलक्षित होता है|
भाव प्रधान जीवन– दया प्रेम क्रोध सहानुभूति सहयोग की प्रवृति|
विरोधी मनोदशाएँ– सामान परिस्थितियों में कभी दुखी तो कभी खुश दिखते है|
संवेगों में विभिन्नताए-  कभी हतोत्साहित तो कभी पूर्ण उत्साहित, कभी अत्यधिक प्रसन्न कभी अत्यधिक खिन्न, कभी अत्यंत दयालू कभी निर्दयी|

काम भावना- किशोरावस्था में काम भावना व्यव्हार के केन्द्रीय रूप में कार्य करती है |
     स्व प्रेम
1 समलिंगी प्रेम , 2 विषम लिंगी प्रेम
वीर पूजा-  कहानियो उपन्यासों चल-चित्रों आदि को देखकर उनके नायको को आदर्श रूप में प्रस्तुत कर स्वयं को उनके जैसा बनाने की कौशिश करते है|
स्वभिमान की  भावना – आत्म गौरव, आत्मसम्मान,स्वाभिमान पर आघात सहन नहीं करते है|
अपराध प्रवृति- संवेगात्मक व्यवहार में समायोजित नहीं होने की वजह से उन्हें कठिनाई का सामना करना पडता है, प्रेम में असफल होने पर या इच्छापूर्ति में बाधा उत्पन्न होने पर किशोर कोई न कोई अपराध कर बैठाता है|
चिंतायुक्त व्यव्हार – किशोर – किशोरियां अनेक बातों पर चिंतित रहते है जैसे – रंग-रूप,स्वास्थ्य,मान -सम्मान,आर्थिक स्तिथि, सामाजिक स्वीकृति,शैक्षिक प्रवृति, भावी व्यवसाय|
स्वतंत्रता की भावना- सामाजिक रीती  रिवाजों और संस्कृति के प्रति तर्क करते है और वो उनके बंधन में बंधना नहीं चाहते है अपने आप को सवतंत्र रखना चाहते है|

नैतिक विकास का सिद्धांत

कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत

हमारे सोच,व्यव्हार और भावनाओं में सही या गलत का बदलाव नैतिक विकास के अन्दर आता है|
एक व्यक्ति नैतिक निर्णय लेते समय कौन कौन से तर्क या वितर्क को ध्यान में रखता है|व्यक्ति नैतिक परिस्थियों में कैसा व्यवहार करता है |नैतिक मुद्दों के बारे में लोग क्या सोचते है|
क्या है जो एक व्यक्ति का  नैतिक व्यक्तित्व बनाने के लिए जिम्मेदार होता है|
पियाजे का सिद्धांत – पियाजे ने 4-12 वर्ष के वच्चों का अवलोकन और साक्षात्कार किया
पियाजे  ने कंचे खेलते हुये बच्चों को देखा ताकि ये जान सके कि बच्चे खेल के नियमों पर किस तरह के विचार रखते है| उन्होंने उन बच्चों से नैतिक मुद्दों के बारे में भी बात की जैसे की चोरी,सजा और न्याय|
पियाजे ने पाया कि बच्चे नैतिकता के बारे में सोचते है तो वे दो अलग अलग अवस्थाओं से होकर गुजरते है|
1 बाहरी सत्ता से प्राप्त नैतिकता
2 स्वायतत्ता पर पर आधारित नैतिकता
1 बाहरी सत्ता से प्राप्त नैतिकता- इस तरह सोचना का ढंग 4-7 वर्ष के बच्चों का होता है|  इस अवस्था में  बच्चे मानते है कि न्याय और नियम दुनिया के न बदलने वाले गुणधर्म है,एसी चीज जो लोगों के वश के बाहर है|
7-10 वर्ष के बच्चे नैतिक चिंतन की पहली और दूसरी अवस्था की मिली-जुली स्तिथि में होते है|
2 स्वायतत्ता पर आधारित- 10 वर्ष या इससे बड़े बच्चे स्वायतत्ता पर आधारित नैतिकता दिखाते है|  वो ये जानते है कि नियम और कानून लोगो के द्वारा बनाये हुए है और वे किसी कार्य का मूल्यांकन करने में वे वे करने वाले व्यक्ति की परिस्तिथि और परिणामों के उपर भी विचार करते है|

कोहाल्बर्ग का सिद्धांत 

कोहाल्बर्ग ने भी पियाजे की तरह बताया कि नैतिक विकास कुछ अवस्थाओं से होता है| कोहाल्बर्ग ने पाया कि ये अवस्थाएं सार्वभौमिक होती है|उन्होंने इस बात का निर्णय 20 वर्ष के बच्चों के साक्षात्कार से कर पाए| कोहाल्बर्ग ने बच्चों को 11 कहानियां सुनाई जिसमे कहानी के पत्र कुछ नैतिक उलझन में होते है|उस कहानी को सुनकर प्रश्नों के उत्तरों के आधार पर कोहाल्बर्ग ने नैतिक विकास की 3 अवस्थाएं बताई–
1 रुढि पूर्व अवस्था में चिंतन
2 रूढिगत चिंतन
3 रुढि से ऊपर उठकर नैतिक चिंतन
कोहाल्बर्ग ने प्रत्येक अवस्था को 2 चरणों में बांटा है|
1  रुढि पूर्व अवस्था में चिंतन– नैतिक चिंतन का सबसे निचला चरण, इस अवस्था में क्या सही है क्या गलत, बाहर से मिलने वाली सजा और उपहार पर निर्भर करता है|
(प्रथम चरण)– बहरी सत्ता पर आधारित- इस चरण में नैतिक सोच सजा से बंधी हुई होती है| बड़ो की बात माननी चाहिए नहीं तो वो दण्डित करेंगे|
(द्वितीय चरण)-व्यक्ति केन्द्रित, एक दुसरे का हित साधने पर आधारित नैतिक चिंतन–वाही बात सही है जिसमे बराबरी का लेन देन हो रहा हो| अगर हम दुसरे की इच्छा पूरी कर दे तो दुसरे हमारी इच्छा पूरी करेंगे|
2 रूढिगत चिंतन– कोहाल्बर्ग के नीति विकास के सिद्धांतों की दूसरी अवस्था है| इस अवस्था में लोग एक पूर्व आधारित सोच से चीजों को देखते है| जैसे बच्चों का व्यवहार उनके माता-पिता या किसी बड़े व्यक्ति द्वारा बनाये गए नियमों पर आधारित होता है|
(तृतीय चरण)– अच्छे आपसी व्यवहार व संबंधों पर आधारित नैतिक चिंतन- इस अवस्था में लोग विश्वास,दूसरों का ख्याल रखना,दूसरों से निष्पक्ष व्यवहार को अपने नैतिक व्यव्हार का आधार मानते है|  इस अवस्था में बालक अपने माता- पिता की  नजर में एक अच्छा लड़का बनने की कौशिश करते है|
(चतुर्थ चरण)–सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने पर आधारित चिंतन-  इस स्तिथि में लोगों में नैतिक निर्णय सामाजिक आदेश,कानून और न्याय,और कर्तव्यों पर आधारित होते है| किशोर का सोचना होता है कि समाज अच्छे से चले इसलिए सबको समाज के दायरे अन्दर ही रहना चाहिए|
3 रुढि से ऊपर उठकर नैतिक चिंतन–  (पांचवा चरण)— सामाजिक अनुबंध,उपयोगिता और व्यक्तिगत अधिकारों पर आधारित नैतिक चिंतन – इस अवस्था में व्यक्ति ये सोचने लगता है कि कुछ मूल्य,सिद्धांत और अधिकार कानून से भी ऊपर हो सकते है| व्यक्ति वास्तविक कानूनों व सामाजिक व्यवस्थाओं का मूल्याङ्कन इस दृष्टि से करने लगता है कि वे किस हद तक मूलभूत मानव अधिकारों व मूल्यों का संरक्षण करते है|
(षष्ठं चरण)--सार्वभौमिक नीतिसम्मत सिद्धांतों पर आधारित नैतिक चिंतन- कोहाल्बर्ग के सिद्धांत की सबसे उच्च अवस्था| इस अवस्था में जब कोई कानून और अंतरात्मा के द्वंद्व में फंस जाता है तो वह व्यक्ति यह तर्क करता है की अंतरात्मा की आवाज  के साथ चलना चाहिए, चाहे वह निर्णय जोखिम से भरा ही क्यों न हो|

एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत/S-R theory

एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत
एरिक्सन ने मनोसामाजिक विकास की 8 अवस्थाएं बताई है  जिनसे व्यक्ति गुजरता है- एरिक्सन का मानना था कि प्रत्येक अवस्था की दो विरोधी विशेषताएं होती है|
1 विश्वास बनाम अविश्वास– (जीवन का प्रथम वर्ष)- इस अवस्था में शिशु विश्वास करना  सिखता है अगर हम उसका सही तरह से ख्याल नहीं रख पाते है तो उसमे अविश्वाश की  भावना भी पैदा हो सकती है| बालक मुख्य रूप से अपनी माँ और अपने परिवार के प्रति  विश्वाश रखता है| सुरक्षा की भावना का विकास|
2 स्वशासन बनाम लज्जा- (2-3 वर्ष)- इस अवस्था में शिशु में स्वं  के प्रति अनुशासन की  भावना विकसित हो जाती है, वह अपने शरीर पर नियंत्रण रखना सिख जाता है| यदि माता-पिता के द्वारा बालक का ख्याल नहीं रखा जाता है या ज्यादा ही ख्याल रखा  जाता है तो बलाक के अन्दर लज्जा का भाव उत्पन्न हो जाता है| भय का विकास ,इच्छा शक्ति का विकास|
3 उपक्रम बनाम दोष बोध-( 4-5 वर्ष)-   नए-नए सृजन करना सिखता है,आत्मविश्वास  जागृत होना,जिज्ञासा प्रवृति का विकास,  आत्मविश्वास की कमी|
4 परिश्रम बनाम हीनभावना– (6-11 वर्ष)- समूह में रहना सिखता है, सामाजिक  विकास हो जाता है| हीन भावना का विकास|
5 पहचान बनाम पहचान का संकट- (12-18 वर्ष)- सम्माज में अलग कार्य करके अपनी  पहचान बनाने की भावना का विकास, पहचान का संकट|
6 घनिष्ठता बनाम पृथकता-(18-35 वर्ष)- एक दुसरे से घनिष्टता, या अलगाव|
7 उत्पादनशीलता बनाम अवरोध– (35-65)-  अपने बाद आने वाली पीढ़ी के लिए  चिंता|
8 सत्यनिष्ठता बनाम निराशा- (65 से अधिक)-अपने भूतकाल के  बारे में सोचकर संतुष्टि  या असंतुष्टि|

अधिगम स्थानांतरण Transfer Of Learning

अधिगम या प्रशिक्षण के स्थानांतरण का सामान्य अर्थ-

“ किसी एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, आदित्य दृष्टिकोणों अथवा अन्य अनुप्रयोग का किसी अन्य परिस्थिति में प्रयोग करना”
अधिगम स्थानांतरण की महत्वपूर्ण परिभाषाएं-
सौरेंसन - " स्थानांतरण एक परिस्थिति में अर्जित ज्ञान, प्रशिक्षण और आदतों का दूसरी परिस्थिति में स्थानांतरित किए जाने की चर्चा करता है|"
कार्लसनिक- " स्थानांतरण पहली परिस्थिति में प्राप्त ज्ञान, कौशल, आदित्य, दृष्टिकोण हो या अन्य क्रियाओं का दूसरी परिस्थिति में अनुप्रयोग करना है|"
इन सभी के द्वारा हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि एक परिस्थिति में सीखे हुए ज्ञान, कौशल, आदतो आदि का अन्य परिस्थिति में अनुप्रयोग ही अधिगम या प्रशिक्षण का स्थानांतरण है|

अधिगम स्थानांतरण के प्रकार -


सकारात्मक स्थानांतरण-  एक परिस्थिति में अथवा एक विषय में सिखा गया ज्ञान किसी नवीन परिस्थिति या विषय को सीखने में सहायता प्रदान करता है  तो उसे सकारात्मक स्थानांतरण कहते है| हैं|
उदाहरण के लिए-
जो व्यक्ति साइकिल चलाना सीख जाता है  उसे बाइक चलाने में भी आसानी रहती हैं, बाइक चलाना आसानी से सीख जाता है|

नकारात्मक स्थानांतरण-  जब एक परिस्थिति में सीखा गया ज्ञान, नवीन ज्ञान के सीखने में बाधा उत्पन्न करता है  तो उसे नकारात्मक स्थानांतरण कहते हैं|
उदाहरण के लिए-  यदि किसी अमेरिकन को, जीवन भर बाए हाथ से गाड़ी चलाई हो, अगर भारत में आ कर उसे दायां हाथ से गाड़ी चलानी पड़े तो उसका पहला प्रशिक्षण नई स्थिति में बाधा उत्पन्न करेगा|

शून्य स्थानांतरण -  जब एक कार्य का प्रशिक्षण दूसरे कार्य को सीखने में न तो सहायता ही करता है और नहीं बाधा उत्पन्न करता है तो इस प्रकार की प्रशिक्षण को शून्य स्थानांतरण कहते हैं| शून्य अंतरण का एक कारण यह भी हो सकता है कि पहले कार्य की प्रकृति का दूसरे कार्य की प्रकृति से कोई संबंध ही ना हो|
जैसे-  भूगोल का ज्ञान भौतिक शास्त्र की समस्या को नहीं सुलझा सकता|
अधिगम स्थानांतरण के सिद्धांत-

मानसिक शक्तियों अथवा औपचारिक अनुशासन का सिद्धांत-

इस सिद्धांत के अनुसार मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की शक्तियां होती हैं|  जैसे-  तर्कशक्ति, विचार शक्ति, कल्पना शक्ति, स्मरण शक्ति, निर्णय शक्ति आदि|
यह सभी शक्तियां विशिष्ट प्रकार की होती हैं तथा स्वतंत्र रूप से कार्य करती हैं अतः इन स्वतंत्र रूप से शक्तिशाली बनाया जाना चाहिए|

समान तत्व का सिद्धांत-

इस सिद्धांत का प्रतिपादन थार्नडाइक ने किया|

इनके के अनुसार एक विषय का अध्ययन दूसरे विषय के अध्ययन में सभी सहायक सिद्ध होता है जबकि इन दोनों विषयों में कुछ तत्व समान हो|

सामान्यीकरण का सिद्धांत-इस सिद्धांत का प्रतिपादक जड़ है|

जड़ के अनुसार जब कोई व्यक्ति अपने किसी कार्य, ज्ञान या अनुभव से कोई सामान्य नियम या सिद्धांत निकाल लेता है तो वह दूसरी परिस्थिति में उसका प्रयोग आसानी से कर सकता है|

दो तत्व सिद्धांत-  इस सिद्धांत के प्रतिपादक स्पीयरमैन है|

स्पीयरमैन ने बताया कि बुद्धि दो प्रकार की होती है- सामान्य बुद्धि और विशिष्ट बुद्धि|
आमतौर पर जीवन में सामान्य बुद्धि का ही उपयोग किया जाता है तथा जहाँ तक विशिष्ट बुद्धि का प्रश्न है वह हर व्यक्ति में भिन्न होती हैं|  स्पीयरमैन के अनुसार अंतरण विशिष्ट योग्यता में न होकर सामान्य योग्यता में होता है|

आदर्शों का सिद्धांत-इस सिद्धांत के प्रतिपादक बागले हैं|

बागले के अनुसार अंतरण का संबंध इतना वस्तु या बातों से नहीं होता जितना की उस बात को अंतरित करने वाले व्यक्ति के आदर्शों से होता है|

पूर्ण-आकार वाद सिद्धांत-  इस सिद्धांत का प्रतिपादन गेस्टाल्टवादियो ने किया|

यह मनोवैज्ञानिक सूझ को अधिक महत्व देते हैं|  इन के अनुसार सूझ अथवा अंतर्दृष्टि से अनुभव एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में अंतरित हो जाते हैं|

स्थानांतरण का शैक्षिक महत्व-

1  अध्यापकों कक्षा में अपने  विद्यार्थियों को को सामान्य सिद्धांतों की अधिक  जानकारी देनी चाहिए तथा विशिष्ट सिद्धांतों की कम|
2  किसी प्रत्येक को स्पष्ट करने के लिए अध्यापक को दैनिक जीवन से संबंधित पर्याप्त उदाहरण देनी चाहिए|
3  अध्यापक को पढ़ाते समय मुख्य बिंदुओं पर ध्यान अधिक देना चाहिए|
4  स्थानांतरण का पाठ्यक्रम निर्माण में विशेष महत्व है|  अतः पाठ्यक्रम में जीवनोपयोगी विषयों को स्थान देना चाहिए|
5  छात्रों को नकारात्मक अंतरण के अवसर नहीं दिए जाने चाहिए|
6  छात्रों से अधिक से अधिक सामान्य करण करवाए जाना चाहिए|
7  शिक्षक पढ़ाते समय सहसंबंध के सिद्धांत को अपनाएं
8  शिक्षक बालकों को किताबी कीड़ा न बनाए बल्कि उन्हें कार्यानुभव के माध्यम से शिक्षा प्रदान करें|
9  छात्रों को उनकी भविष्य की योजनाओं के अनुरूप शिक्षा दी जानी चाहिए|
10  छात्रों को नियमित रूप से स्थानांतरण के अवसर प्रदान किए  जाने चाहिए|
11   शिक्षक को बालक की मानसिक योग्यता एवं व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार पाठ्य विषय एवं शिक्षण विधियों का चयन करना चाहिए तथा स्थानांतरण के लिए अनुकूल परिस्थितियां प्रदान करनी चाहिए|
12  शिक्षक स्थानांतरण की सफलता के लिए चिंतन शक्ति का विकास तथा अध्ययन के प्रति रुचि जागृत करनी चाहिए|  साथ ही, ज्ञानार्जन के लिए बालक को सदेव प्रेरित करते रहना चाहिए|

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक--

1  सीखने की इच्छा-   बालक को नया ज्ञान देने से पूर्व आवश्यक है कि उसमें सीखने के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न की जाए क्योंकि ऐसा होने पर विद्यार्थी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इसी बात को सीखने में सफल हो जाता है सीखने की इच्छा  के अतिरिक्त छात्रों का आकांक्षा स्तर भी उच्च कोटि का होना चाहिए|
2  शैक्षिक पृष्ठभूमि-   अधिगम पर इस बात का बहुत प्रभाव पड़ता है कि सीखने वाले की शैक्षिक योग्यता क्या ? यदि शास्त्र किसी विषय में पिछड़ा है तो उस विषय से संबंधित नवीन ज्ञान सीखने में उसे कठिनाई का सामना करना पड़ेगा|  यदि किसी छात्र  की एक विषय में शैक्षिक योग्यता सामान्य से अधिक हैं तो छात्र उस विषय में नया ज्ञान सुगमता से सीख लेगा|
3  शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य-  सीखने से पहले बालक का शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहना भी नितांत आवश्यक है,  क्योंकि बालक की ध्यान, रुचि व एकाग्रता पर इसका प्रभाव पड़ता है|  शारीरिक एवं मानसिक रूप से अस्वस्थ बालक शीघ्र ही थक जाते हैं|
4  परिपक्वता-  अधिगम की प्रक्रिया को बालक की शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता अधिक प्रभावी बनाती हैं|  बहुत सी चीजें बालक तनिष्क पता है जब उसमें परिपक्वता आ जाती हैं चाहे हम उसे कितना भी प्रशिक्षण क्यों न दे|
5  अभिप्रेरणा-  सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा का महत्वपूर्ण योगदान है|  यदि बालक को किसी नवीनतम ज्ञान अथवा कार्य को सीखने के लिए प्रेरित नहीं किया जाता है तो वह उस क्रिया में रुचि नहीं लेगा|  अभिप्रेरणा से सीखने की इच्छा प्रबल हो जाती हैं|  अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि बालक को उसका लक्ष्य स्पष्ट कर दिया जाए|
6  सीखने वाले की अभिवृत्ति-  यदि किसी विषय के प्रति छात्र की नकारात्मक अभिवृत्ति है तो शिक्षक चाहे जितना परिश्रम करें छात्र के अधिगम में उन्नति होने की संभावना नहीं होती है|
सीखने वाले की किसी विषय के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति है तो बहुत सरलता से उस विषय को सीख जाता है|  किसी विषय के प्रति सीखने वाले का रुझान बहुत महत्वपूर्ण होता है|
7  सीखने का समय तथा अवधि-  यदि छात्र देर तक किसी क्रिया को करता रहता है तो वह थकान का अनुभव करने लगता है और थकान अनुभव होने से अधिगम प्रक्रिया में शिथिलता उत्पन्न हो जाती हैं|  विद्यालयों में समय चक्र बनाते समय भी इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पहले कठिन विषय तथा बाद में सरल विषय पढ़ाए जाएं|  मध्यांतर  की भी व्यवस्था इसी उद्देश्य से की जाती हैं|
8  बुद्धि-  तीव्र बुद्धि छात्र  किसी भी ज्ञान को शीघ्रतम सरलता से सीख लेता है और मंद बुद्धि वाले छात्रों को सामान्य बुद्धि वाले छात्र के साथ भी सीखने में बाधा रहती हैं|
बुद्धि लब्धि तथा शैक्षिक लब्धि में उच्च सकारात्मक संबंध होता है|

शैक्षिक अनुप्रयोग-

1  विषय वस्तु को सरल से जटिल क्रम में प्रस्तुत करना|
2  नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से संबंधित करना|
3  पाठ्यवस्तु को घंटा से समझने की दृष्टि से विशिष्ट से सामान्य तथा उदाहरण से नियम की ओर शिक्षण सूत्रों का प्रयोग करना|
4  एक छात्र के अधिगम का दूसरे से संबंध स्थापित करना|
5  अधिक से अधिक ज्ञानेंद्रियों का प्रयोग करना  अर्थात करके सीखना
6  अभ्यास कार्य तथा दोहराने की व्यवस्था|
7  उपयुक्त प्रतिपुष्टि व पुनर्बलन की व्यवस्था|
8  सीखने और सिखाने की मनोवैज्ञानिक विधियों और तकनीकों का प्रयोग करना|
9  शिक्षण अधिगम संबंधी उपयुक्त परिस्थितियां एवं वातावरण तैयार करना|
10  श्रव्य दृश्य का प्रयोग करते हुए मूर्त से अमूर्त शिक्षण सूत्र का पालन करना|
11  विषय वस्तु की उद्देश्यपूर्णता को स्पष्ट करना|
12  शिक्षा के अनौपचारिक साधनों का प्रयोग करना|

अधिगम, अधिगम अन्तरण, तर्क‍, एवं समस्या समाधान

अधिगम

सीखना या अधिगम  एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।
अधिगम की परिभाषायें
  1. बुडवर्थके अनुसार – ‘‘सीखना विकास की प्रक्रिया है।’’
  2. स्किनरके अनुसार – ‘‘सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।’’
  3. जे॰पी॰ गिलर्फडके अनुसार – ‘‘व्यवहार के कारण, व्यवहारमें परिवर्तन ही सीखना है।’’
  4. कालविनके अनुसार – ‘‘पहले से निर्मित व्यवहार में अनुभवों द्वारा हुए परिवर्तन को अधिगम कहते हैं।’’
उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि सीखने के कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है, व्यवहार में यह परिवर्तन बाह्य एवं आंतरिक दोनों ही प्रकार का हो सकता है। अतः सीखना एक प्रक्रिया है जिसमें अनुभव एवं प्रषिक्षण द्वारा व्यवहार में स्थायी या अस्थाई परिवर्तन दिखाई देता है।
ई॰एल॰ थार्नडाइक अमेरिका का प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हुआ है जिसने सीखने के कुछ नियमों की खोज की जिन्हें निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है–
(क) मुख्य नियम (Primary Laws)
  1. तत्परता का नियम
  2. अभ्यास का नियम
  3. उपयोग का नियम
  4. अनुप्रयोग का नियम
  5. प्रभाव का नियम
(ब) गौण नियम (Secondary Laws)
  1. बहु-अनुक्रिया का नियम
  2. 2.मानसिक स्थिति का नियम
  3. आंशिक क्रिया का नियम
  4. समानता का नियम
  5. साहचर्य-परिर्वतन का नियम
मुख्य नियम
सीखने के मुख्य नियम तीन है जो इस प्रकार हैं –
  1. तत्परता का नियम– इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या सीखने की इच्छा नहीं होती हैतो वह झुंझला जाता है या क्रोधित होता है व सीखने की गति धीमी होती है।
  2. अभ्यास का नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है उस शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगताहै। जैसे‘- गणित के प्रष्न हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग नियम भी कहते हैं।
  3. प्रभाव का नियम– इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने पर व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख का या संतोष मिलता है उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पडता है उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।
गौण नियम
  1. बहु अनुक्रिया नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के हल ढूढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियायें तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्यासुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।
  2. मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम– इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।
  3. आंशिक क्रिया का नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियायें प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंर्तदृष्टि का उपयोग कर आंषिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूढ़ लेता है।
  4. समानता का नियम– इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाये जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सीखने में मद्द करते हैं।
  5. साहचर्य परिवर्तन का नियम– इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-कुत्ते के मुह से भोजन सामग्री को देख कर लार टपकरने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तनको ही देख कर लार टपकने लगती है।
सीखना चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन में सहायता करता है। किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में कुछ समय रहने के पश्चात् हम उस समाज के नियमों को समझ जाते हैं और यही हमसे अपेक्षित भी होता है। हम परिवार, समाज और अपने कार्यक्षेत्र के जिम्मेदार नागरिक एवं सदस्य बन जाते हैं। यह सब सीखने के कारण ही सम्भव है। हम विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये सीखने का ही प्रयोग करते हैं। परन्तु सबसे जटिल प्रश्न यह है कि हम सीखते कैसे हैं ?
अधिगम की आवश्यकता
  • अधिगम पृथ्वी पर उपस्थित सभी प्राणी को लिए आवश्यक है। अधिगम के बिना एक जीवंत आदमी किसी काम का नहीं होता। कोई भी व्यक्ति जो अपने वातावरण को भी नहीं समझता वह मृत व्यक्ति के समान है। कल्पना करो कि कोई व्यक्ति जन्म लेता है और खुली हवा में सांस लेना नहीं सीखता तो वह किसी भी समय मर सकता है।
  • अधिगम वृद्धि एवं विकास में सहायक है। परिपक्वता और अधिगम में अंतर क्रिया के परिणाम स्वरुप ही हमारे व्यक्तित्व के सभी पक्षों भौतिक पक्ष, गामक पक्ष, संज्ञानात्मक पक्ष, सामाजिक पक्ष, संवेगात्मक पक्ष आदि सभी का विकास होता है। परिपक्वता से हमारे शरीर का विकास होता है। परंतु अधिगम एक अर्जित व्यवहार होने के नाते निश्चित दिशा और दशा प्रदान करता है।
  • अधिगम हमारे जीवन की आधारभूत आवश्यकता का बोध कराने में सहायता करता है और हमें ऐसे तरीके सिखाता है। जिससे हम उन्हें प्राप्त कर सके तथा उन पर आधिपत्य कर सके। एक व्यक्ति से जीवन भर हाथ से पकड़कर कार्य नहीं करवाया जा सकता जैसे-जैसे वह बड़ा होता है उसे यह सिखाने की आवश्यकता होती है कि खाना कैसे खाना है और इसके पश्चात उसे अपना वजन कैसे कम आना है।
  • अधिगम वातावरण अनुकूल करने में सहायक है, अधिगम हमें जैसे-जैसे वातावरण में परिवर्तित होते हैं उनके सापेक्ष परिवर्तित होने में सहायता करता है, उदाहरण के लिए हम देख सकते हैं कि मरुस्थलों में भी लोगों ने वातावरण के अनुकूल अपनी जीवनशैली को परिवर्तित किया है ना कि केवल उच्चतम तापमान के अनुसार कितने लोगों ने स्थान नई नौकरी तथा नवीन संबंधों के अनुसार भीहमें स्वयं समायोजित करना पड़ता है। इसलिए केवल अधिगम ही हमारी सहायता कर सकता है।
  • अधिगम अधिक कुशल बनाने में सहायक, अधिगम अधिक कुशल बनाने में तथा ऊंचा स्थान प्राप्त करने में सहायता करता है। यदि आप किसी भी व्यक्ति की योग्यता पर पढ़ते हो तो उसके कार्य होने की जानकारी प्राप्त करते हो क्योंकि यही सूचना आपको उसके नियम की स्थिति की जानकारी प्रदान करती है। इसके पीछे यही मान्यता है कि जितना समय आपने कुछ करने के लिए खर्च किया है उसने आपके अधिगम को बढ़ावा दिया है।
  • अधिगम गहन ज्ञान प्रदान करने में सहायक, किसी भी विषय के बारे में ग्रहण ज्ञान प्रदान करने में सहायता होती है। जो आप किताबी शिक्षा से प्राप्त नहीं कर सकते हमें याद रखना चाहिए कि इतिहास में अधिकतर प्रसिद्ध व्यक्ति शिक्षित नहीं थे परंतु उन्हें अपने कार्य व्यापार का पूर्ण ज्ञान क्या इसके पीछे प्रमुख कारण था उनका अधिगम ना की शिक्षा आप किसी भी व्यक्ति के बारे में अधिगम कैसे प्राप्त करते हो। यह आपको सामान्य व्यक्ति से एक नेता की स्थिति में पहुंचा सकता है।
  • अधिगम योग्यता को बढ़ाता है, अधिगम प्राप्त करने की आपकी योग्यता तथा इच्छा ही इस बात का निश्चय करती है कि आप अपने जीवन में क्या करोगे तथा आप को कितनी सहायता मिलेगी आपको अपने दिन प्रतिदिन के कार्यों की पूर्ति के लिए संपर्क लोगों तथा परिस्थितियों के अधिगम का प्रयोग करना पड़ता है।
  • अधिगम अच्छे व्यक्ति बनाने में सहायक, जब तक हम अनुभव तथा शिक्षा प्राप्त नहीं कर लेते अधिगम संपूर्ण नहीं हो सकता। इन में से किसी एक की भी कमी दूसरे के प्रयोग को नकार सकती है। हम नागरिक के कर्तव्य तथा अधिकारों का ज्ञान विद्यालय में प्राप्त करते हैं परंतु अच्छी नैतिकता तथा व्यवहार अनुभव प्राप्त करने के पश्चात किया जाता है। जब तक हमारे पास यह सब नहीं होगा तब तक हम अच्छे व्यक्ति के रुप में विकसित नहीं हो सकते।
अधिगम अन्तरण
अधिगम अंतरण या सीखने के अंतरण को प्रशिक्षण अंतरण अथवा प्रशिक्षण स्थानांतरण भी कहा जाता है। अधिगम अंतरण तथा प्रशिक्षण अंतरण को समानार्थक शब्दों के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। अधिगम अंतरण का अर्थ है, किसी विषय, कार्य अथवा परिस्थिति में अर्जित ज्ञान का उपयोग किसी अन्य विषय, कार्य अथवा परिस्थिति में करना। अतः जब एक विषय का ज्ञान अथवा एक परिस्थिति में सीधी बातें दूसरे विषय अथवा अंय परिस्थिति में सीखी जा रही बातों के अध्ययन में सहायक अथवा घातक होता है उसे सीखने का अंतरण कहा जाता है।
सीखे हुये कार्य का प्रयोग दूसरी परिस्थितियों में भी किया जा सकता है। किसी व्यक्ति के ज्ञान के उपयोग करने की क्षमता, कौशलों और किसी भी तरह का सीखना बहुत सराहनीय है। अगर एक बालक गुणा या भाग सीखता है तो वह इसका उपयोग न सिर्फ कक्षा में करता है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर बाजार और घर में भी करता है। प्रशिक्षण का स्थानान्तरण उस प्रक्रिया को इंगित करता है जिसमें वह पहले सीखे हुये व्यवहार का नई परिस्थिति में उपयोग करता है। सकारात्मक पूर्व का सीखा हुआ दूसरी बार सीखने में सहायक होता है तो यह सकारात्मक स्थानान्तरण है। एक अच्छा विद्यार्थी सीखने के हर मौके को एक अच्छा अवसर मानकर उसका उपयोग करता है। सीखने की पूर्व उल्लिखित विभिन्न विधियाँ या प्रकार सीखने के बारे में कुछ मूल विचार प्रकट करते हैं। व्यक्तित्व, रुचि या अभिवृत्तियों में आने वाले परिवर्तन सीखने के कतिपय प्रकारों के परिणामस्वरूप हो ते हैं। यह बदलाव एक जटिल प्रक्रिया के साथ होते हैं। सीखने में उन्नति के साथ आप में सीखने की क्षमता विकसित हो ती है। अगर आप सीखते हैं तो आप एक बेहतर व्यक्ति, कार्यशैली में लचीले और सत्य को सराहने की निपुणता वाले बन जाते हैं।
अंतरण के प्रकार
  1. धनात्मक अंतरण-
धनात्मक अंतरण को सकारात्मक अंतरण भी कहते हैं। जब पूर्व अर्जित ज्ञान नवीन ज्ञान को अर्जित करने में सहायक होता है, तो उसे धनात्मक अंतरण करते हैं। धनात्मक अंतरण में पूर्व ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण नहीं बातों को सिखाने में सहायता प्रदान करता है। स्पष्ट है कि किसी कार्य को करने का ज्ञान, योग्यता अथवा अनुभव जब अन्य कार्यों को करने में सहायक होता है तब इसे सीखने का धनात्मक अंतरण माना जाता है, जैसे हिंदी भाषा का ज्ञान संस्कृत भाषा सीखने में सहायता प्रदान करने के कारण धनात्मक अंतरण कहलाएगा।
2.. ऋणात्मक अंतरण-
ऋणात्मक अंतरण को निषेधात्मक अंतरण भी कहते हैं। जब पूर्व अर्जित ज्ञान नवीन ज्ञान को अर्जित करने में बाधक होता है, तो इसे ऋणात्मक अंतरण कहते हैं ऋणात्मक अंतरण में पूर्व ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण नई बातों को सीखने में व्यवधान उत्पन्न करता है। स्पष्ट है कि किसी कार्य को करने का ज्ञान, योग्यता अथवा अनुभव जब दूसरे कार्य को करने में घातक होता है। तब इसे सीखने ऋणात्मक अंतरण कहा जाता है, जैसे तेज चलने का अभ्यास दिल की बीमारी की स्थिति में चिकित्सक की सलाह के बावजूद धीमे चलने में बाधक होता है अतः इसे ऋणात्मक अंतरण कहा जाएगा।
3. क्षैतिज अंतरण-
जब किसी परिषद में अर्जित ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण का उपयोग व्यक्ति के द्वारा उसी प्रकार की लगभग समान पर स्थित में किया जाता है, तो इसे सीखने का क्षैतिज अंतरण कहते हैं। जैसे गणित में जुड़वां घटाने के प्रश्नों को हल करने का अभ्यास उसी तरह के अन्य प्रश्नों को हल करने में काम आता है।
4. ऊर्ध्व अंतरण-
जब किसी परिचित में अर्जित ज्ञान, अनुभव अथवा प्रशिक्षण का उपयोग प्राणी के द्वारा किसी अन्य भिन्न प्रकार की अथवा उच्चस्तरीय परिस्थितियों में किया जाता है। तब इसे सीखने का ऊर्ध्व अंतरण कहते हैं, जैसे स्कूटर चलाने वाले व्यक्ति द्वारा कार चलाना सीखते समय उसके पूर्व अनुभव का ऊर्ध्व अंतरण होता है।
5.द्विपार्श्विक अंतरण-
मानव शरीर को दो भागों दायें भाग तथा बायां भाग में बांटा जा सकता है। जब मानव शरीर के एक भाग को दिए गए प्रशिक्षण का अंतरण दूसरे भाग में होता है। तो इसे द्विपार्श्विक अंतरण कहते हैं, जैसे दाएं हाथ से लिखने की योग्यता का लाभ जब व्यक्ति बाएं हाथ से लिखना सीखने में करता है तो इसे द्विपार्श्विक अंतरण कहते हैं।
अंतरण की दशाएं
सीखने का अंतर कुछ निश्चित परिस्थितियों में ही संभव होता है जब अंतरण के लिए अनुकूल परिस्थितियां होती है तभी सीखने का अंतरण संभव होता है अंतरण की मात्रा भी उपलब्ध परिस्थितियों पर निर्भर करती है अंतरण को प्रभावित करने वाली कुछ विशेषताएं हैं-
  1. सीखने वाले की इच्छा
  2. सीखने वाले की मानसिक योग्यता
  3. सीखने वाले की शैक्षिक उपलब्धि
  4. सीखने वाले में सामान्यीकरण की योग्यता
  5. विषय वस्तु की समानता
  6. अध्ययन विधियों की समानता
  7. विषयों के अंतरण मूल्य
  8. प्रशिक्षण
तर्क‍
तर्क‍ (argument) कथनों की ऐसी शृंखला होती है जिसके द्वरा किसी व्यक्ति या समुदाय को किसी बात के लिये राज़ी किया जाता है या उन्हें किसी व्यक्तव्य को सत्य मानने के लिये कारण दिये जाते हैं। आम तौर पर किसी तर्क के बिन्दु साधारण भाषा में प्रस्तुत किये जाते हैं और उनके आधार पर निष्कर्ष मनवाया जाता है। लेकिन गणितविज्ञान और तर्कशास्त्र में यह बिन्दु और अंत के निष्कर्ष औपचारिक वैज्ञानिक भाषा में भी लिखे जा सकते हैं।
निगमनात्मक तर्क 
निगमनात्मक विधि के जन्मदाता अरस्तु है इस विधि में हम सामान्य ( सभी) से विशेष ( एक)  की तरफ अग्रसर होते हैं अर्थात सभी से एक की तरफ बढ़ते हैं इस विधि का संबंध गणित से होता है।निगमनात्मक में पूर्व निर्णित सिद्धांत या सामान्य सत्य से तर्क द्वारा अज्ञात सत्य को प्रमाणित किया जाता है प्रायः ज्ञात सत्यों के आधार पर अज्ञात सत्य का निगमन होता है। – reasoning from known to unknown प्रमाणिक तथ्यों पर आधारित निर्णय स्वीकार्य सत्य होते हैं – ग्रीक चिन्तक अरस्तु ने इस पद्धति का ब्यापक प्रयोग किया। तर्क की जिस प्रक्रिया में एक या अधिक ज्ञात सामान्य कथनों के आधार पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है, निगमनात्मक तर्क (Deductive reasoning या deductive logic) कहते हैं। ‘निगमनात्मक तर्क’, ‘आगमनात्मक तर्क’ से बिलकुल भिन्न है। नीचे एक निगमनात्मक तर्क दिया गया है-:
सभी मनुष्य नश्वर हैं।
मोहन मनुष्य है।
अतः मोहन नश्वर है।
इसमें छात्र स्वयं नियम नहीं बनाते, बल्कि शिक्षक उन्हें पहले बने नियमों, उदाहरणों, प्रयोगों ओर अनुभवों आदि से अवगत करवा देते है ओर उन्हें कुछ प्रश्नो के हल करके दिखा दिया जाता है|अतः यह विधि चलती है|
  1. नियम से उदाहरण की ओर,
  2. सामान्य से विशिष्ट की ओर,
  3. सूक्ष्म से स्थूल की ओर. एवं
  4. प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
निगमन विधि के दोष
  1. निगमन विधि में बालकों को  शिक्षक द्वारा बनाया हुआ नियम अथवा दिया हुआ ज्ञान हर हालत में स्वीकार करना पड़ता है
  2. निगमन विधि आगमनात्मक विधि से बिल्कुल उल्टी है इस विधि में सामान्य से विशिष्ट की ओर,  अज्ञात से ज्ञात की ओर तथा अमूर्त से मूर्त की ओर चलना पड़ता है इस  दृष्टि से यह विधि शिक्षण की अमनोवैज्ञानिक विधि  है
  3. यह विधि नियम उत्तर अथवा सिद्धांतों को बलपूर्वक रखने के लिए बात करती है परिणाम स्वरूप बालक पाठ में कोई रुचि नहीं लेते
  4. इस विधि से बालकों  को अपने निजी प्रयासों द्वारा ज्ञान  को खोजने का कोई अवसर नहीं मिलता है इससे उन में मानसिक दासता विकसित हो जाती है
  5. निगमन विधि द्वारा हुआ ज्ञान बालकों के मस्तिष्क का स्थाई अंग नहीं बनता
  6. बालकों में रचनात्मक प्रवृत्ति होती है अतः वस्तुओं को बनाने, बिगाड़ने अथवा तोड़ने पुणे में रुचि लेते हैं पर निगमन विधि केवल अमूर्त चिंतन पर ही बल देती है इससे बालकों की रचनात्मक शक्तियां अविकसित ही रह जाती है
  7. प्रयुक्त दोषों को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि निगमन विधि से आगमन विधि द्वारा खोजें हुए नियमों अथवा सिद्धांतों का प्रयोग अभ्यास बहुत अच्छा कराया जा सकता है
आगमनात्मक तर्क
आगमनात्मक विधि के जन्मदाता फ्रांसीसी बेकन है यह विधि निगमनात्मक विधि का विलोम होती है इस विधि में हम विशेष (एक) से सामान्य (सभी) की तरफ बढ़ते हैं अर्थात एक से सभी की तरफ बढ़ते हैं इस वीर्य का संबंध विज्ञान से होता है। किसी वस्तु या प्रक्रिया में जो वस्तु या प्रमाण मिलते हैं, उनका निरिक्षण किया जाता है  और इस तरह अनेक सामान वस्तुओं और प्रक्रियाओं (प्रोसेस) में परिलक्षित विशेष तत्वों के आधार पर  सामान्य सिद्धांत बनाये जाते हैं। तर्क की जिस प्रक्रिया में एकाकी प्रेक्षणों के ज्ञात तथ्यों को जोड़कर अधिक व्यापक कथन निर्मित किया जाता है, आगमनात्मक तर्क (Inductive reasoning या induction) कहलाता है। यह ‘निगमनात्मक तर्क  से बहुत भिन्न तर्क है।
राम मरणशील है
श्याम मरणशील है
मोहन मरणशील है
इसलिए सभी मनुष्य मरणशील है
इस विधि में प्रत्यक्ष अनुभवों, उदाहरणों तथा प्रयोगों का अध्ययन कर नियम निकाले जाते है तथा ज्ञात तथ्यों के आधार पर उचित सूझ बुझ से निर्णय लिया जाता है| इसमें शिक्षक छात्रों को अध्ययन करवाते है|
  1. प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर,
  2. स्थूल से सूक्ष्म की ओर,
  3. विशिष्ट से सामान्य की ओर,
प्रत्यक्ष तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धांतों तक पहुंचना आगमन पद्धति (इनडक्टिव मेथड) की प्रक्रिया है।  इतालियन चिन्तक लिओ नारदो दा विन्ची ने पहले पहल इस पद्धति का ब्यापक प्रयोग किया। अंग्रेज चिन्तक फ्रांसिस बेकन ने इसे एक सिद्धांत के रूप में प्रतिष्ठित किया।
आगमन विधि के गुण
  1. आगमन विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान के खोजने का प्रशिक्षण मिलता है यह प्रशिक्षण उन्हें जीवन में नए-नए तत्वों को खोज निकालने के लिए सदेव प्रेरित करता रहता है अतः यह विधि शिक्षण की एक मनोवैज्ञानिक विधि है
  2. आगमन विधि ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा सरल से जटिल की ओर चलकर मूर्त उदाहरणों द्वारा बालकों से सामान्य नियम निकलवाए जाते हैं इससे वह शक्ति तथा प्रसन्न रहते हैं ज्ञानार्जन हेतु उनकी रुचि निरंतर बनी रहती है एवं उनमें रचनात्मक चिंतन आत्मविश्वास आदि अनेक गुण विकसित हो जाते हैं
  3. आगमन विधि में ज्ञान प्राप्त करते हुए बालक को सीखने के  प्रत्येक स्तर को पार करना पड़ता है इस से शिक्षण प्रभावशाली बन जाता है
  4. इस विधि में बालक उदाहरणों का विश्लेषण करते हुए सामान्य नियम स्वयं निकाल लेते हैं इससे उनका मानसिक विकास सफलतापूर्वक हो जाता है
  5. इस विधि द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्वयं वालों को का खोजा हुआ ज्ञान होता है आता ऐसा ज्ञान उनके मस्तिष्क का स्थाई अंग बन जाता है
  6. यह विधि व्यवहारिक जीवन के लिए अत्यंत लाभदायक है फतेह विधि एक प्राकृतिक विधि है
आगमन विधि के दोष
  1. इस विधि द्वारा सीखने में शक्ति तथा समय दोनों अधिक लगते हैं
  2. यह विधि छोटे बालकों के लिए उपयुक्त नहीं है इनका प्रयोग केवल बड़े और वह भी बुद्धिमान बालक ही कर सकते हैं सामान्य बुद्धि वाले बालक तो पराया प्रभावशाली बालको द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों को  आंख मीचकर स्वीकार कर लेते हैं
  3. आगमन विधि द्वारा सिखाते हुए यदि बालक किसी अशुद्ध सामान्य नियम की  और पहुंच जाएं तो उन्हें सत्य की ओर लाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है
  4. आगमन विधि द्वारा केवल सामान्य नियमों की खोज ही की जा सकती है अतः इस विधि द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा नहीं दी जा सकती
  5. यह विधि स्वयं में अपूर्ण है इसके द्वारा खोजें हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि आवश्यक है
  6. आगमन विधि ही ऐसी विधि है जिसके द्वारा सामान्य नियम तथा सिद्धांतों की खोज की जा सकती है।
अतः इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय यह आवश्यक है कि शिक्षक उदाहरणों तथा प्रश्नों का प्रयोग बालको के मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए करें इससे उनकी नवीन ज्ञान को सीखने में उत्सुकता निरंतर बढ़ती रहेगी
निगमन                     आगमन
निगमन पद्धति सिद्धांत केन्द्रित है आगमन पद्धति वास्तु केन्द्रित है
निगमन पद्धति में सामान्य सिद्धांत से विशेष तथ्य की ओर जाकर उसके गुणों का परिक्षण किया जाता है आगमन पद्धति में विशेष वस्तुओं के गुणों के आधार पर सामान्य सिद्धांत बनाये जाते हैं
निगमन पद्धति में कुछ अनुमान से काम लिया जाता है आगमन पद्धति में केवल  तथ्यों को आधार बनाया जाता है
निगमन पद्धति में सैद्धांतिक कथन के रूप को आधार मान कर अन्य तत्वों की सत्यता को प्रमाणित या अप्रमाणि किया जाता है आगमन पद्धति में वस्तुओं का परिक्षण कर निर्णयों पर पहुँचा  जाता है
निगमनात्मक विधि में युक्ति का मूल्यांकन करते समय  वैध एवं अवैध शब्दों का प्रयोग किया जाता है आगमनात्मक युक्ति का मूल्यांकन करते समय उचित एवं अनुचित या अच्छा खराब शब्दों का प्रयोग किया जाता है
 निगमन एवं आगमन पद्धति के मुख्य अंतर
अतः निगमन पद्धति का उपयोग दर्शन या गणित आदि में  अधिक होता है और आगमन पद्धति का प्रयोग वैज्ञानिक शोध के क्षेत्र में होता है।
समस्या समाधान विधि
किसी समस्या का समाधान (हल) प्राप्त करने के लिए क्रमबद्ध तरीके से किसी सामान्य विधि तथा प्रदर्शित विधि का उपयोग करना पड़ता है समस्या समाधान अधिगम (लर्निंग बाई सॉल्विंग प्रॉबुलेम्स) के अंतर्गत जीवन में आने वाली नवीन समस्याओं के तरीकों का सीखना आता है।
मानव जीवन में अनेक समस्याएं आती है, जिससे उसमें तनाव, द्वन्द, संघर्ष, विफलता, निराशा जैसी प्रवृतियाँ जन्म लेती है। ऐसी परिस्थितियों से बचने के लिए शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को प्रारम्भ से ही समस्या समाधान विधि द्वारा अध्ययन देकर उनमें तर्क व निर्णय द्वारा किसी समस्या को सुलझाने की क्षमता का विकास करना चाहिए।
इसमें छात्रों की शैक्षणिक कठिनाई का समाधान किया जाता है व छात्र स्वंय सीखने में प्रेरित होते है। ब्रोन -1971 ने उस स्थिति को समस्यातमक कहा है जिसमें व्यक्ति किसी लक्ष्य तक पहुँचने की चेष्टा करता है व प्रारम्भ प्रयास में असफल हो जाता है उसके लिए उसे दो या अधिक अनुक्रियाएँ करनी पड़ती है।
समस्या समाधान शिक्षा के सोपानः- जेम्स एम.एल.
  1. समस्या का चयन करना
  2. समस्या के कारणों का पता लगाना
  3. समस्या से सम्बन्धित तथ्यों, सूचना का एकत्रण करना
  4. समस्या का हल खोजना (विश्लेषण व निष्कर्ष)
  5. समस्या का हल व समाधान निकालने का प्रयोग।
विशेषताएँ
1. यह छात्रों को समस्या समाधान के लिए विशेष प्रशिक्षण प्रदान करती है।
  1. उसमें छात्र क्रियाशील रहता है व स्वंय सीखने का प्रयत्न करता है।
  2. यह मानसिक कुशलता के विकास में सहायक है
  3. यह छात्रों को आत्मनिर्णय लेने में कुशल बनाती है।
  4. छात्रों की स्मरण शक्ति के स्थान पर इससे बुद्धि प्रखर होती है।
  5. छात्रों में मौलिक चिन्तन, उदारता, सहिष्णुता, सहयोग जैसे का विकास होता है।

अधिगम का अर्थ एवं सिद्धान्त

सीखना अनुभव व प्रशिक्षण द्वारा व्यिक्त्त के व्यवहार में परिवर्तन है। अनुभव दो प्रकार का हो सकता है, प्रथम प्रकार का अनुभव बालक स्वयं ग्रहण करता है जबकि दूसरे प्रकार का अनुभव, अन्य लोगों के अनुभव से लाभ उठाने की श्रेणी में आता है। प्रशिक्षण के अन्तर्गत औपचारिक शिक्षा आती है। एक माँ द्वारा जो शिक्षा दी जाती है वह औपचारिक व अनौपचारिक दोनों होती है। जिसका मुख्य उद्देश्य बालक को सिखाना होता है। सीखने के फलस्वरूप बालक के व्यवहार में स्थायी परिमार्जन होता है। विद्यालय का कार्य भी बालक को सिखाना है। किंतु सीखने से आशय मात्र व्यवहार परिमार्जन नहीं। सभी प्रकार के व्यवहार परिवर्तन को सीखना नहीं कहतें। सीखने से तात्पर्य व्यवहार में स्थायी परिवर्तन से होता है और यह परिवर्तन बालक को वातावरण से समायोजित होने में मद्द करते हैं।

सीखना =व्यवहार में स्थायी परिवर्तन 
अनुभव
(1) स्वयं के अनुभव
(2) दूसरों के अनुभव
 प्रशिक्षण

अधिगम के सिद्धान्त

सीखने के अनेक सिद्धान्त है। प्रत्येक सिद्धान्त किसी न किसी परिस्थिति की भली - भाँति व्याख्या करता है। इन सिद्धान्तों को निम्नलिखित वर्गो में वर्गीकृत किया जा सकता है।

1.  थार्नडाइक का संबधवाद का सिद्धान्त -

एडवर्ड ली थार्नडाइक ने सन् 1913 ई. मे प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘एजुकेशनल साइकोलॉजी’ मे सीखने का एक नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। इसे उत्तेजक - प्रतिक्रिया सिद्धान्त या सीखने का संबंध सिद्धान्त भी कहते है।
जब कोई व्यक्ति किसी कार्य को सीखना आरम्भ करता है तो उसके सामने एक विशेष स्थिति या उत्तेजक होता है। यह स्थिति या उत्तेजक व्यक्ति को एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया R करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार एक विशिष्ट स्थिति या उत्तेजक का एक प्रतिक्रिया विशेष के साथ बन्घन हो जाता है। इस प्रकार के बन्धन के फलस्परूप व्यक्ति जब भविष्य में उस उत्तेजक का अनुभव करता है तो वही प्रतिक्रिया दोहराता है।

उलझन - बक्स प्रयोग - थार्नडाइक ने अपने सिद्धान्त के परीक्षण के लिए बिल्लियों के ऊपर कई प्रयोग किये । एक प्रयोग में उसने एक भूखी बिल्ली को उलझन बक्स में बन्द कर दिया था। जो एक खटके के दबने से बुलता था। बक्स के बाहर मछली रख दी गयी थी। बाहर रखी हुई मछली ने भूखी बिल्ली के लिए उत्तेजक का कार्य किया जिससे बिल्ली सक्रिय होकर मछली पाने के लिए प्रतिक्रिया करने लगी। वह बाहर निकलने का प्रयास करने लगी। एक बार बिल्ली का पंजा संयोग से खटके के ऊपर पड़ गया। फलत: वह बाहर आ गयी। थार्नडाइक ने इस प्रयोग को लगभग सौ बार दोहराया और एक समय ऐसा आ गया कि बिल्ली को उलझन बाक्स में बन्द कर देने पर वह बिना किसी त्रुटि के खटके को दवाकर बक्स का दरवाजा खोलने लगी।थार्नडाइक ने सीखने के सिद्धान्त में तीन महत्पूर्ण नियमों का वर्णन किया है जो निम्नांकित है-
  1. अभ्यास का नियम
  2. तत्परता का नियम
  3. प्रभाव का नियम
1) अभ्यास का नियम - यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि अभ्यास से व्यक्ति में पूर्णता आती है। अत: जब हम किसी पाठ या विषय का बार - बार दुहराते है तो उसे सीख जाते है। इसे थार्नडाइक ने उपयोग नियम कहा है। दूसरी तरफ जब हम किसी पाठ या विषय को दोहराना बन्द कर देते है तो उसे भूल जाते है। इसे इन्होंने अनुपयोग नियम कहा जाता है।

2) अभ्यास का नियम - इस नियम के अनुसार यदि व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से तैयार होता है तो सीखना होता है।

3) प्रभाव का नियम - थानर्ड ाइक के सिद्धान्त का यह सबसे महत्वपूर्ण नियम है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी अनुक्रिया या कार्य को उसके प्रभाव के आधार पर सीखता है। किसी कार्य या अनुक्रिया का प्रभाव व्यक्ति में या तो सन्तोषजनक होता है या खीझ उत्पन्न करने वाला। प्रभाव सन्तोषजनक होने पर व्यक्ति उसे सीख लेता है अन्यथा भूल जाता है।

2. पॉवलाव का अनुकूलित -अनुक्रिया सिद्धान्त-

अनुकूलित - अनुक्रिया के सिद्धान्त का आधार शरीर क्रिया विज्ञान का सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त सम्बन्धवाद के इस सिद्धान्त को महत्व देता है कि उत्तेजना और प्रतिक्रिया का संबंध होना ही सीखना है। इसके प्रतिपादक पॉवलोव है। सभी प्राणियों में मूल रूप से प्रतिक्रिया तथा प्रवृत्तियाँ होती है जो उपयुक्त उत्तेजक द्वारा गतिशील हो जाती है। आन्तरिक या बाहृय प्रेरणा के फलस्वरूप उत्तेजक और अनुक्रिया में सम्बन्ध हो जाता है। इसी को सीखना कहते है। यदि स्वाभाविक उत्तेजक के साथ कोई कृत्रिम उत्तेजक भी कई बार प्रदान किया जाये तो कृत्रिम उत्तेजक का संबंध स्वाभाविक उत्तेजक से हो जाता है। इस प्रकार कृत्रिम उत्तेजक के कारण स्वाभाविक उत्तेजक के समान हुई प्रतिक्रिया को ‘सम्बद्ध प्रतिक्रिया’ या अनुकूलित प्रतिक्रिया कहते है।

उदाहरण - भोजन को देखकर कुत्ते के द्वारा लार जब भोजन के साथ घंटी बजती है तो कुछ समय बाद छोटी सुनकर लार टपकाना।

सम्बन्ध प्रत्यावर्तन या अनुबन्धन के पहले की स्थिति
अस्वाभाविक उत्तेजना         अनुक्रिया
(घण्टी की आवाज)         (कान का उत्तेजित होना)
स्वाभाविक उत्तेजना         स्वाभाविक अनुक्रिया
(भोजन)         (लार टपकाना)
सम्बन्ध प्रत्यावर्तन या अनुबन्धन हो जाने
पर स्थिति -
अस्वाभाविक उत्तेजना         सम्बद्ध प्रतिक्रिया
(घण्टी की आवाज)         (लार टपकाना)

3. स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबन्ध सिद्धान्त -

क्रिया -प्रसूत अनुबन्धन सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिका के मनोवैज्ञानिक स्किनर ने 1938 में किया था। इस सिद्धान्त को नैमित्तिक अनुबन्ध सिद्धान्त भी कहते है।
स्किनर के क्रिया - प्रसूत अनुबन्धन में सही अनुक्रिया को होना अधिक महत्व रखता है। यहाँ केवल एक अस्वाभाविक या कृत्रिम उत्तेजक होता है जो वांछित अनुक्रिया के बाद दिया जाता है तथा इस अनुक्रिया को पुनर्बलित कर देता है। स्किनर ने अपने सिद्धान्त के आधार पर परम्परागत S-R सूत्र के RS सूत्र में परिवर्तित कर दिया। सीखने की प्रक्रिया में उत्सर्जित अनुक्रियाओं पर जो प्रभाव पड़ता है उसे समझने के लिए पुनर्बलन का सिद्धान्त सहायक है। इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने वाले का व्यवहार ही प्रबलन प्रात्त करने में सहायता करता है।

4. गथरी का प्रतिस्थापन का सिद्धान्त -

दिया हुआ उत्तेजक अथवा उत्तेजको का संचय एक निश्चित अनुक्रिया को निष्कर्षित करने की प्रवृत्ति रखता है और गथरी के अनुसार सीखना, इन जन्मजात अथवा अर्जित अनुक्रियाओं को दूसरे अथवा प्रतिस्थापित उत्तेजकों की ओर विस्तारित करने की क्रिया है।
गथरी के अनुसार - “एक उत्तेजक प्रतिमान जो एक प्रतिक्रिया के समय क्रियाशील है, यदि वह दोबारा होगा तो उस प्रतिक्रिया को उत्पादित करने की प्रवृत्ति रखेगा।”गथरी के अनुसार, इस प्रकार के सीखने के लिए केवल एक तत्व उत्तेजक और प्रतिक्रिया का समय में सामीप्य होना अनिवार्य है। एक सम्बन्ध, उत्तेजक तथा प्रतिक्रिया के एक बन्धन में पूर्णत: दृढ़ हो जाता है, किन्तु अम्यास में दोहराना कई प्रकार के सीखने के लिए आवश्यक होता है।

5. हल का क्रमबद्ध व्यवहार सिद्धान्त -

अमेरीकी मनोवैज्ञानिक, कलार्क एलण् हल का सिद्धान्त सम्बन्धवादी मनोवैज्ञानिकों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। हल ने अनेक प्रयोग किये और उनके आधार पर अपने अनुसार सीखने की व्याख्या प्रस्तुत की। उसके सिद्धान्त को क्रमबद्ध व्यवहार सिद्धान्त या हल का प्रबलन सिद्धान्त कहा गया। इसे अन्तर्नोद न्यूनता का सिद्धान्त भी कहते हैं।
किसी आवश्यकता को दूर करना इस सिद्धान्त का मुख्य तत्व है। अपने को पर्यावरण से समायोजित करने के लिए प्राणी किसी न किसी आवश्यकता का अनुभव करता है। आवश्यकता को पूरा करने के लिए वह जो कुछ भी उस क्षण से पहले अनुभव कर रहा होता है वह सब उसकी प्रतिक्रियाओं से सम्बद्ध हो जाता है। यह सम्बद्ध प्रतिक्रिया आवश्यकता का अनुभव होने पर होती है।

हल के अनुसार सीखना आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया के द्वारा होता है। हल ने चूहों पर अनेक प्रयोग किये। इन प्रयोगों के आधार पर उसने निष्कर्ष निकाला कि उत्तेजना (S) और अनुक्रिया (X) के बीच सम्बन्ध अन्तर्नोद पर निर्भर है। अन्तर्नोद आवश्यकता के कारण प्राणी में तनाव की स्थिति है। ऐसी स्थिति का अनुभव होने पर प्राणी में अनेक उत्तेजनाएं उत्पन्न हो जाती है। जो उसे उद्देश्य तक पहुंचाती है। इससे उनका तनाव कम हो जाता है और वह पुर्नबलन प्राप्त करता है। वह इस प्रकार वह कार्य को सीख लेता है।

6. गेस्टाल्ट सिद्धान्त-

गेस्टाल्ट सिद्धान्त एक जर्मन स्कूल की देन है। गेस्टाल्ट स्कूल का जन्म सन 1920 र्इ0 में हुआ था। इस स्कूल में संबंधित व्यक्ति मैक्स वर्दीगर, कोहलर, तथा कोफका है। वर्दीमर इस सिद्धान्त के प्रवर्तक है और कोहलर तथा कोफका ने इस सिद्धान्त सिद्धान्त को आगे बढ़ाने का कार्य किया है। गेस्टाल्ट जर्मन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है समग्राकृति या पूर्ण आकार। गेस्टाल्ट के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार है-
  1.  मस्तिष्क में चीजों को व्यवस्थित करने का गुण होता है। यह विभिन्न वस्तुओं को तत्काल आकार-प्रकार और गुण प्रदान कर सकता है।
  2. हम किसी भी चीज को पूर्ण रूप या समग्र रूप से देखते हैं। यद्यपि यह विभिन्न भागों या अंगों से बनी होती है, फिर भी उनसे भिन्न होती है।
  3. यह सांख्यिकी में विश्वास नहीं करता है। मानव व्यवहार को गणितीय रूप से विश्लेषित नही किया जा सकता है। ये परिमाण की अपेक्षा गुणात्मकता में अधिक विश्वास करते है।
  4. ये मनोवैज्ञानिक वातावरण में विश्वास करते है और उसी को अधिक महत्व देते है। ये भौतिक वातावरण को अधिक महत्व नहीं देते।
  5. ये समाकृतिका के सिद्धान्त को मानते है।
कोहलन के अनुसार सीखना किसी स्थिति के समग्र या पूर्णरूप से समझने का प्रतिफल है। इसका सम्बन्ध प्रत्यक्षीकरण से है। सीखने में प्राणी सम्पूर्ण परिस्थिति को दृष्टि में रखकर समस्या का हल ढूंढने में सफल होता है। इसके अन्तर्गत सीखने की क्रिया में सफलता प्राप्त करने के लिए या समस्या का समाधान ढूंढने में अन्तदृष्टि या सूझ विद्यमान रहती है। इसलिए इसे अन्तदृष्टि या सूझ का सिद्धान्त भी कहते है।
यह सिद्धान्त पशुओं की अपेक्षा मनुष्यों पर सफलतापूर्वक लागू किया जा सकता है क्योंकि सूझ का सम्बन्ध बुद्धि, चिन्तन और कल्पना से होता है और यह क्षमता पशुओं में कम होती है।

7 . टालमैन का संज्ञानात्मक विकास सिद्धान्त-

टॉलमैन द्वारा प्रतिपादित सीखने के सिद्धान्त के अनुसार सीखने की क्रिया में उद्देश्य का विशेष महत्व है। उसका विचार है कि प्राणी की सभी क्रियाएं उद्देश्यपूर्ण या प्रयोजनपूर्ण होती है। सीखने की क्रिया में प्राणी का व्यवहार उद्देश्यपूर्ण होता है। उदाहरार्थ भूखा कुत्ता अपने मालिक की विशिष्ट ध्वनि सुनकर दौड़ना सीख जाता है। यहाँ पर कुत्ते का दौड़ना यांत्रिक नही है वरन किसी ज्ञान पर आधारित है। यदि उत्तेजक में अर्थ नही जुड़ा रहता है तो किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया नही होती है। टॉलमैन का विचार है कि उत्तेजक में उसी समय अर्थ जुड़ता है जब वह किसी की आवश्यकता और उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होते है।

इस सिद्धान्त के अनुसार सीखने वाला उद्देश्यों की सम्प्राप्ति के लिये प्रतीकों का अनुसरण करता है और विषय वस्तु में अर्थ सीखने का प्रयास करता है। टॉलमैन यह मानता है कि सीखना ज्ञानात्मक मानचित्र बनाना है। टॉलमैन के विचार से पुरस्कार, दण्ड एवं अनुबन्धन के प्रतीक है जो उसे यह ज्ञान देते हैं कि उसे कौन सा मार्ग चुनना है। वे ऐसे प्रतिनिधि नही है जो उनसे संबंधित कार्यो को करा सके या रोक सके।

8 . क्षेत्रीय सिद्धान्त-

इस सिद्धान्त के प्रतिपादक कुर्त लेविन 1890-1947 हैं। उनका सिद्धान्त, सीखने के ज्ञानात्मक सिद्धान्त के तुरन्त बाद स्थान दिया गया है। लेविन के मत का आधार वातावरण में व्यक्ति की स्थिति है। लेविन ने जीवन स्थल के आधार पर व्यक्ति के अनुभवों की व्याख्या की है। लेविन के अनुसार जीवन स्थल, वह वातावरण है जिसमें व्यक्ति रहता है और उससे प्रभावित होता है। किसी व्यक्ति का यह जीवन स्थल मनोवैज्ञानिक शक्तियों पर निर्भर होता है।
लेविन के सिद्धान्त में भत्र्सना, लक्ष्य तथा अवरोधक प्रमुख तत्व है। किसी व्यक्ति को लक्ष्य की संप्राप्ति के लिए अवरोधक को पार करना आवश्यक है। यह अवरोधक मनोवैज्ञानिक अथवा भौतिक हो सकता है। व्यक्ति के जीवन स्थल में अवरोधक के मनोवैज्ञानिक रूप से परिवर्तन होने के कारण सदैव नये निर्माण होते रहते है।

निर्माणवाद- 

निर्माणवाद सीखने को दर्शन शास्त्र है। यह अधिगम की प्रक्रिया में अधिगमकर्ता को महत्व देता है। इसके अनुसार अधिगमकर्ता अपने लिए प्रत्ययों का निर्माण करता है, समस्या के बारे में अपने समाधान खोजता है। सीखना मानसिक संरचना के निर्माण का परिणाम है जिसमें अधिगमकर्ता नयी सूचना को पुरानी सूचना से अर्थपूर्ण ढंग से जोड़ता है। अत: सीखना अधिगमकर्ता की पृष्ठभूमि, विश्वासों व मनोवृत्तियों से प्रभावित होते है।

निर्माणवाद में सीखने के सिद्धान्त-
  1. सीखना सक्रिय प्रक्रिया है जिसमें अधिगमकर्ता संवेदनाओं का प्रयोग करते हुए इनका अर्थपूर्ण निर्माण करता है
  2. \जैसे-जैसे व्यक्ति सीखता जाता है, वह सीखने की प्रक्रिया को भी सीखता है। 
  3. इसके अनुसार सीखने के लिए मस्तिष्क तथा हाथ दोनों सक्रिय होना आवश्यक है।
  4. सीखने की प्रक्रिया में भाषा निहित होती है। 
  5. सीखना एक सामाजिक क्रिया है। सीखना हमारे अन्य लोगों से सम्बन्ध जैसे शिक्षण, संगी-साथी व परिवार पर निर्भर करता है। 
  6. सीखना किसी परिप्रेक्ष्य में होता है। हम अपने पूर्व ज्ञान, विश्वासों, पक्षपातों तथा भय के सम्बन्ध में सीखते है। 
  7. सीखने के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। जितना ज्यादा हमारा ज्ञान होता है उतना ही हम सीखते है। 
  8. सीखना क्षणभर में नही हो जाता। सीखने में समय लगता है। 
  9. सीखने का मुख्य तत्व प्रेरणा है। निर्माणवाद के अन्तर्गत मुख्य रूप से प्याजे, बायगोत्सकी, बूनर तथा डीवी के अधिगम सम्बन्धी विचार आते है।

सीखने को प्रभावित करने वाले कारक

सीखने केा निम्नलिखित कारक प्रभावित करते है-
  1. सामान्य बुद्धि
  2. विशिष्ट बुद्धि
  3. व्यक्ति का पूर्व में अर्जित ज्ञान व कौशल
  4. परिवार का प्रभाव
  5. व्यक्ति का व्यक्तित्व, उदाहरण व्यक्ति के शील गुण, चिन्ता का स्तर आदि
  6. अधिगम के तरीके
  7. व्यक्ति का आत्म प्रत्यय
  8. संगी साथी का प्रभाव

शिक्षण के सिद्धांत एवं प्रतिपादक,शिक्षा मनोविज्ञान

  •  मनोविज्ञान के जनक Answer विलियम जेम्स
  •  आधुनिक मनोविज्ञान के जनक Answer विलियम जेम्स
  •  प्रकार्यवाद साम्प्रदाय के जनक Answer विलियम जेम्स
  •  आत्म सम्प्रत्यय की अवधारणा Answer विलियम जेम्स
  •  शिक्षा मनोविज्ञान के जनक Answer थार्नडाइक
  •  प्रयास एवं त्रुटि सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  •  प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  • संयोजनवाद का सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  • उद्दीपन-अनुक्रिया का सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  • थ्योरी के जन्मदाता Answer थार्नडाइक
  • अधिगम का बन्ध सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  • संबंधवाद का सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  • प्रशिक्षण अंतरण का सर्वसम अवयव का सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  • बहु खंड बुद्धि का सिद्धांत Answer थार्नडाइक
  •  बिने-साइमन बुद्धि परीक्षण के प्रतिपादक Answer बिने एवं साइमन
  •  बुद्धि परीक्षणों के जन्मदाता Answer बिने
  •  एक खंड बुद्धि का सिद्धांत Answer बिने
  •  दो खंड बुद्धि का सिद्धांत Answer स्पीयरमैन
  •  तीन खंड बुद्धि का सिद्धांत Answer स्पीयरमैन
  •  सामान्य व विशिष्ट तत्वों के सिद्धांत के प्रतिपादक Answer स्पीयरमैन
  •  बुद्धि का द्वय शक्ति का सिद्धांत Answer स्पीयरमैन
  •  त्रि-आयाम बुद्धि का सिद्धांत Answer गिलफोर्ड
  •  बुद्धि संरचना का सिद्धांत Answer गिलफोर्ड
  •  समूह खंड बुद्धि का सिद्धांत Answer थर्स्टन
  •  युग्म तुलनात्मक निर्णय विधि के प्रतिपादक Answer थर्स्टन
  •  क्रमबद्ध अंतराल विधि के प्रतिपादक Answer थर्स्टन
  •  समदृष्टि अन्तर विधि के प्रतिपादक Answer थर्स्टन व चेव
  •  न्यादर्श या प्रतिदर्श(वर्ग घटक) बुद्धि का सिद्धांत Answer थॉमसन
  •  पदानुक्रमिक(क्रमिक महत्व) बुद्धि का सिद्धांत Answer बर्ट एवं वर्नन
  •  तरल-ठोस बुद्धि का सिद्धांत Answer आर. बी. केटल
  •  प्रतिकारक (विशेषक) सिद्धांत के प्रतिपादक Answer आर. बी. केटल
  •  बुद्धि '' और बुद्धि '' का सिद्धांत Answer हैब
  •  बुद्धि इकाई का सिद्धांत Answer स्टर्न एवं जॉनसन
  •  बुद्धि लब्धि ज्ञात करने के सुत्र के प्रतिपादक Answer विलियम स्टर्न
  •  संरचनावाद साम्प्रदाय के जनक Answer विलियम वुण्ट
  •  प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के जनक Answer विलियम वुण्ट
  •  विकासात्मक मनोविज्ञान के प्रतिपादक Answer जीन पियाजे
  •  संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत Answer जीन पियाजे
  •  मूलप्रवृत्तियों के सिद्धांत के जन्मदाता Answer विलियम मैक्डूगल
  •  हार्मिक का सिध्दान्त Answer विलियम मैक्डूगल
  •  मनोविज्ञान को मन मस्तिष्क का विज्ञान Answer पोंपोलॉजी
  • क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिध्दान्त Answer स्किनर
  • सक्रिय अनुबंधन का सिध्दान्त Answer स्किनर
  • अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धांत Answer इवान पेट्रोविच पावलव
  • संबंध प्रत्यावर्तन का सिद्धांत Answer इवान पेट्रोविच पावलव
  • शास्त्रीय अनुबंधन का सिद्धांत Answer इवान पेट्रोविच पावलव
  • प्रतिस्थापक का सिद्धांत Answer इवान पेट्रोविच पावलव
  •  प्रबलन(पुनर्बलन) का सिद्धांत Answer सी. एल. हल
  •  व्यवस्थित व्यवहार का सिद्धांत Answer सी. एल. हल
  •  सबलीकरण का सिद्धांत Answer सी. एल. हल
  •  संपोषक का सिद्धांत Answer सी. एल. हल
  •  चालक / अंतर्नोद(प्रणोद) का सिद्धांत Answer सी. एल. हल
  • अधिगम का सूक्ष्म सिद्धान्त Answer कोहलर
  •  सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धांत Answer कोहलर, वर्दीमर, कोफ्का
  •  गेस्टाल्टवाद सम्प्रदाय के जनक Answer कोहलर, वर्दीमर, कोफ्का
  •  क्षेत्रीय सिद्धांत Answer लेविन
  •  तलरूप का सिद्धांत Answer लेविन
  •  समूह गतिशीलता सम्प्रत्यय के प्रतिपादक Answer लेविन
  •  सामीप्य संबंधवाद का सिद्धांत Answer गुथरी
  • साईन(चिह्न) का सिद्धांत Answer टॉलमैन
  •  सम्भावना सिद्धांत के प्रतिपादक Answer टॉलमैन
  • अग्रिम संगठक प्रतिमान के प्रतिपादक Answer डेविड आसुबेल
  • भाषायी सापेक्षता प्राक्कल्पना के प्रतिपादक Answer व्हार्फ
  •  मनोविज्ञान के व्यवहारवादी सम्प्रदाय के जनक Answer जोहन बी. वाटसन
  • अधिगम या व्यव्हार सिद्धांत के प्रतिपादक Answer क्लार्क
  • सामाजिक अधिगम सिद्धांत के प्रतिपादक Answer अल्बर्ट बाण्डूरा
  •  पुनरावृत्ति का सिद्धांत Answer स्टेनले हॉल
  • अधिगम सोपानकी के प्रतिपादक Answer गेने
  •  विकास के सामाजिक प्रवर्तक Answer एरिक्सन
  •  प्रोजेक्ट प्रणाली से करके सीखना का सिद्धांत Answer जान ड्यूवी
  • अधिगम मनोविज्ञान का जनक Answer एविग हास
  •  अधिगम अवस्थाओं के प्रतिपादक Answer जेरोम ब्रूनर
  •  संरचनात्मक अधिगम का सिद्धांत Answer जेरोम ब्रूनर
  •  सामान्यीकरण का सिद्धांत Answer सी. एच. जड
  •  शक्ति मनोविज्ञान का जनक Answer वॉल्फ
  • अधिगम अंतरण का मूल्यों के अभिज्ञान का सिद्धांत Answer बगले
  •  भाषा विकास का सिद्धांत Answer चोमस्की
  •  माँग-पूर्ति(आवश्यकता पदानुक्रम) का सिद्धांत Answer मैस्लो (मास्लो)
  •  स्व-यथार्थीकरण अभिप्रेरणा का सिद्धांत Answer मैस्लो (मास्लो)
  •  आत्मज्ञान का सिद्धांत Answer मैस्लो (मास्लो)
  •  उपलब्धि अभिप्रेरणा का सिद्धांत Answer डेविड सी.मेक्लिएंड
  •  प्रोत्साहन का सिद्धांत Answer बोल्स व काफमैन
  •  शील गुण(विशेषक) सिद्धांत के प्रतिपादक Answer आलपोर्ट
  • व्यक्तित्व मापन का माँग का सिद्धांत Answer हेनरी मुरे
  • कथानक बोध परीक्षण विधि के प्रतिपादक Answer मोर्गन व मुरे
  • प्रासंगिक अन्तर्बोध परीक्षण (T.A.T.) विधि के प्रतिपादक Answer मोर्गन व मुरे
  •  बाल -अन्तर्बोध परीक्षण (C.A.T.) विधि के प्रतिपादक Answer लियोपोल्ड बैलक
  •  रोर्शा स्याही ध्ब्बा परीक्षण (I.B.T.) विधि के प्रतिपादक Answer हरमन रोर्शा
  •  वाक्य पूर्ति परीक्षण (S.C.T.) विधि के प्रतिपादक Answer पाईन व टेंडलर
  •  व्यवहार परीक्षण विधि के प्रतिपादक Answer मे एवं हार्टशार्न
  • किंडरगार्टन(बालोद्यान ) विधि के प्रतिपादक Answer फ्रोबेल
  •  खेल प्रणाली के जन्मदाता Answer फ्रोबेल
  •  मनोविश्लेषण विधि के जन्मदाता Answer सिगमंड फ्रायड
  •  स्वप्न विश्लेषण विधि के प्रतिपादक Answer सिगमंड फ्रायड
  •  प्रोजेक्ट विधि के प्रतिपादक Answer विलियम हेनरी क्लिपेट्रिक
  •  मापनी भेदक विधि के प्रतिपादक Answer एडवर्ड्स व क्लिपेट्रिक
  •  डाल्टन विधि की प्रतिपादक Answer मिस हेलेन पार्कहर्स्ट
  •  मांटेसरी विधि की प्रतिपादक Answer मेडम मारिया मांटेसरी
  •  डेक्रोली विधि के प्रतिपादक Answer ओविड डेक्रोली
  •  विनेटिका(इकाई) विधि के प्रतिपादक Answer कार्लटन वाशबर्न
  •  ह्यूरिस्टिक विधि के प्रतिपादक Answer एच. ई. आर्मस्ट्रांग 
  •  समाजमिति विधि के प्रतिपादक Answer जे. एल. मोरेनो
  •  योग निर्धारण विधि के प्रतिपादक Answer लिकर्ट
  •  स्केलोग्राम विधि के प्रतिपादक Answer गटमैन
  •  विभेद शाब्दिक विधि के प्रतिपादक Answer आसगुड
  •  स्वतंत्र शब्द साहचर्य परीक्षण विधि के प्रतिपादक Answer फ़्रांसिस गाल्टन
  •  स्टेनफोर्ड- बिने स्केल परीक्षण के प्रतिपादक Answer टरमन
  •  पोरटियस भूल-भुलैया परीक्षण के प्रतिपादक Answer एस.डी. पोरटियस
  •  वेश्लर-वेल्यूब बुद्धि परीक्षण के प्रतिपादक Answer डी.वेश्लवर
  •  आर्मी अल्फा परीक्षण के प्रतिपादक Answer आर्थर एस. ओटिस
  •  आर्मी बिटा परीक्षण के प्रतिपादक Answer आर्थर एस. ओटिस
  •  हिन्दुस्तानी बिने क्रिया परीक्षण के प्रतिपादक Answer सी.एच.राइस
  •  प्राथमिक वर्गीकरण परीक्षण के प्रतिपादक Answer जे. मनरो
  •  बाल अपराध विज्ञान का जनक Answer सीजर लोम्ब्रसो
  •  वंश सुत्र के नियम के प्रतिपादक Answer मैंडल
  •  ब्रेल लिपि के प्रतिपादक Answer लुई ब्रेल
  •  साहचर्य सिद्धांत के प्रतिपादक Answer एलेक्जेंडर बैन
  •  "सीखने के लिए सीखना" सिद्धांत के प्रतिपादक Answer हर्लो
  •  शरीर रचना का सिद्धांत Answer शैल्डन
  •  व्यक्तित्व मापन के जीव सिद्धांत के प्रतिपादक Answer गोल्डस्टीन

General science biology

1 The term 'gene' was first used by A Johannsen B Mendel C Lemark D Cuvier     Answer: Option [A] 2 Wilkins X-ray diffraction showe...