जिस ढंग से शिक्षक शिक्षार्थी को ज्ञान प्रदान करता है उसे शिक्षणविधि कहते हैं।
विज्ञान शिक्षण :–
विज्ञान शिक्षण की विधियाँ
1. पाठ योजना (पंचपदी) के प्रवर्तक – हरबर्ट स्पेन्सर
2. इकाई योजना के प्रवर्तक – मारिसन
3. खेल विधि के प्रवर्तक – काल्डवेन कुक
4. खोज/अनुसंधान/ अन्वेषण/ह्युरिस्टिक विधि के प्रवर्तक – प्रो• आर्मस्ट्राग
5. अभिक्रमिक अनुदेशन विधि के जन्मदाता – बी• एफ• स्किनर
6. प्रोजेक्ट/ प्रायोजना विधि के प्रवर्तक – किलपैट्रिक
विज्ञान शिक्षण के मुख्य बिन्दु —
1. प्रयोगशाला विधि स्वयं करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित है ।
2. पर्यटन विधि छात्रों को प्रत्यक्ष इन देने के सिद्धांत पर आधारित है । (पेस्टालाजी)
3. अवलोकन विधि से छात्रों में निरिक्षण करने की योग्यता का विकास होता है ।
4. अनुसंधान विधि से छात्रों में खोज प्रवृत्ति का उदय होता है ।
5. समस्या समाधान विधि में छात्रों में विचार तथा निर्णय शक्ति का विकास होता है ।
6. छोटी कक्षाओं में अधिकतर प्रयोग प्रदर्शन विधि का प्रयोग उचित होता है ।
7. बड़ी कक्षाओ में प्रयोगशाला विधि का प्रयोग किया जाना उचित है ।
8. प्रयोग प्रदर्शन विधि से शिक्षण कराने में बालकों में करके सीखने के गुण का विकास होता हैं ।
9. प्रायोजना विधि में कोई कार्य बालकों के सामने समस्या के रूप में
प्रस्तुत किया जाता है और उस समस्या को बालक स्वयं हर करने का प्रयास करते
हैं ।
10. प्रक्रिया विधि बाल केन्द्रित विधि है जिसमें बालक को प्रधानता दी जाती हैं । बालक स्वतः स्वभाविक रूप से क्रियाशील होता हैं ।
11. सम्प्रत्यय किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा है । सम्प्रत्यय वे
विचार है जो वस्तुओं, घटनाओं तथा गुणों का उल्लेख करते हैं ।
12.
सम्प्रत्यय निर्माण में बच्चों को पाँच स्तरों से गुजरना पड़ता है –
निरिक्षण, तुलना, पृथक्करण, सामान्यीकरण तथा परिभाषा निर्माण । व्याख्यान
विधि सबसे सरल व प्राचीन विधि है ।
भौतिक एवं जैविक पर्यावरण अध्ययन की प्रविधियां (कक्षा 5 स्तर तक )
प्रयोग प्रदर्शन विधि —
1. प्राथमिक स्तर के बालकों को भौतिक एवं जैविक पर्यावरण अध्ययन विषय के
पाठों के अंतर्गत आए प्रयोग प्रदर्शन को स्वयं करके बच्चों को दिखाना चाहिए
।
2. छात्रों को भी यथा संभव प्रयोग करने तथा निरिक्षण करने का अवसर देना चाहिए ।
3. इस विधि से शिक्षण कराने पर करके सीखने के गुण का विकास होता है ।
प्रयोग – प्रदर्शन विधि की विशेषता :-
1. यह विधि छात्रों को वैज्ञानिक विधि का प्रशिक्षण प्रदान करती है ।
2. इस विधि में छात्र सक्रिय रहते है तथा प्रश्नोत्तरी के माध्यम से पाठ का विकास होता है ।
3. छात्रों की मानसिक तथा निरिक्षण शक्ति का विकास होता है ।
4. विषय वस्तु सरल, सरस, बोधगम्य तथा स्थायी हो जाती है ।
प्रयोग-प्रदर्शन विधि को प्रभावी बनाने के तरीके —
1. प्रयोग प्रदर्शन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ से सभी बालकों को आसानी से दिख सके ।
2. छात्रों को प्रयोग करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए ।
3. इस विधि का शिक्षण कराते समय अध्यापक को सक्रिय रहकर छात्रों द्वारा प्रयोग करते समय उनका उचित मार्गदर्शन करना चाहिए ।
4. कक्षा में प्रयोग करने से पहले अध्यापक को एक बार स्वयं प्रयोग करके देख लेना चाहिए ।
5. प्रयोग से संबंधित चित्र, महत्वपूर्ण सारांश एवं निष्कर्ष श्यामपट्ट पर लिखना चाहिए ।
प्रयोग-प्रदर्शन विधि के दोष —
1. इस विधि से शिक्षण कराने पर सभी छात्रों को समान अवसर नहीं मिलते ।
2. इस विधि में व्यक्तिगत समस्या के समाधान का अवसर छात्रों को नहीं मिलता ।
3. प्रयोग करते समय कुछ छात्र निष्क्रिय बैठें रहते है ।
4. कक्षा में छात्रों की संख्या अधिक होने पर यह विधि प्रभावी नहीं रहती ।
प्रायोजना विधि
1. प्रायोजना विधि के प्रवर्तक अमेरिकी शिक्षाविद विलियम हैनरी किलपैट्रिक थे । ये जाॅन ड्युवी के शिष्य थे ।
2. परिभाषा -“प्रोजेक्ट वह सह्रदय सौउद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाता है ।” – किलपैट्रिक
” प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक स्थिति में पूरा किया जाता है ।” – प्रो• स्टीवेंसन
” क्रिया की एक ऐसी इकाई जिसके नियोजन एवं क्रियान्वन के लिए चार स्वयं ही उत्तरदायी हो ।” – पारकर
3. इस विधि में कोई कार्य छात्रों के सामने समस्या के रूप में प्रस्तुत
किया जाता है और उस समस्या को बालक स्वयं सुलझाने का प्रयास करता है ।
4. प्रोजेक्ट विधार्थियों के जीवन से संबंधित किसी समस्या का हल खोजने के
लिए किया जाने वाला कार्य है जो स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया
जाता है ।
प्रायोजना विधि के चरण :–
1. परिस्थिति उत्पन्न करना – इसमें बालकों की स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण होती है ।
2. प्रायोजना का चुनाव – प्रोजेक्ट के चुनाव में शिक्षक का महत्वपूर्ण स्थान है ।
3. प्रायोजना का नियोजन – इसके अंतर्गत प्रायोजना का कार्यक्रम बनाना पड़ता है ।
4. प्रायोजना का क्रियान्वन – इस स्तर पर शिक्षक कार्यक्रम की योजना के अनुसार सभी छात्रों को आवंटित करता है ।
5. प्रायोजना का मूल्यांकन – प्रायोजना की क्रियान्विती पूर्ण होने पर
छात्र तथा शिक्षक इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि कार्य में कहा तक सफलता
मिली ।
6. प्रायोजना का अभिलेखन – इस चरण के अंतर्गत प्रायोजना से संबंधित सभी बातों का उल्लेख किया जाता है ।
प्रायोजना विधि के गुण –
1. यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित विधि है जिसमें बालक को
स्वतंत्रतापूर्वक सोचने, विचारने, निरिक्षण करने तथा कार्य करने का अवसर
मिलता है ।
2. प्रोजेक्ट संबंधी क्रियाएं सामाजिक वातावरण में पूरी की जाती है । इस कारण छात्रों में सामाजिकता का विकास होता है ।
3. इस विधि में छात्र स्वयं करके सीखते है, अतः प्राप्त होने ज्ञान स्थायी होता है ।
4. प्रायोजना का चुनाव करते समय छात्रों की रुचियों, क्षमताओं और मनोभावों को ध्यान में रखा जाता है ।
प्रायोजना विधि के दोष –
1. इस विधि द्वारा सभी प्रकरणों का अध्ययन नहीं कराया जा सकता ।
2. इस विधि में प्रशिक्षित अध्यापक की आवश्यकता होती है ।
3. प्रायोजना विधि अधिक खर्चीली है ।
4. इस विधि में अधिक समय लगता है ।
प्रक्रिया विधि (Learning by doing)
1. इस विधि को क्रिया द्वारा सीखना भी कहते है।
2. शिक्षा में क्रिया को प्रधानता देने वाले प्रथम शिक्षाशास्त्री कमेनियस
थे । उनके अनुसार क्रिया करना बालक का स्वाभाविक गुण है, अतः जो भी शिक्षा
प्रदान की जाए, वह क्रिया के द्वारा प्रदान की जाए ।
3. शिक्षाविद पेस्टालाजी ने क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया है ।
4. पेस्टालाजी के शिष्य फ्रोबेल ने प्रसिद्ध शिक्षण विधि किंडरगार्टन का
आविष्कार किया । यह खेल और प्रक्रिया द्वारा शिक्षा देने की विधि है ।
5. प्रक्रिया विधि बालकों के प्रशिक्षण में क्रियाशीलता के सिद्धांत को स्वीकार करती है ।
6. प्रोजेक्ट विधि, मान्टेसरी विधि, किंडरगार्टन विधि इस पर आधारित है ।
7. प्रक्रिया विधि जैविक एवं भौतिक पर्यावरण विषय के अध्ययन के लिए उपयुक्त विधि है ।
प्रक्रिया विधि के गुण —
1. यह विधि बाल केन्द्रित विधि है जिसमें बालक को प्रधानता दी जाती हैं ।
2. प्रक्रिया विधि में वस्तुओं के संग्रह, पर्यटन, अवलोकन, परीक्षण के विषयों में विशेष रूप से विचार करती है ।
3. बालकों में करके सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है ।
प्रक्रिया विधि के दोष —
1. प्रकिया विधि में स्वतंत्र अध्ययन होने के कारण वास्तविक (यथार्थ) अध्ययन नहीं हो पाता ।
2. प्रक्रिया विधि विषय केन्द्रित तथा शिक्षक केन्द्रित नहीं है जबकि शिक्षण में दोनों की आवश्यकता है ।
सम्प्रत्यय प्रविधि
1. “सम्प्रत्यय किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा है । ” – बोरिंग, लैंगफील्ड और वील्ड ।
2. ” सम्प्रत्यय क्रियाशील ज्ञानात्मक मनोवृत्ति है ।
सम्प्रत्यय किसी देखी हुई वस्तु या मन का प्रतिमान है । ” – रास
3. ” सम्प्रत्यय किसी वस्तु का सामान्य अर्थ होता है जिसे शब्द या शब्द
समूहों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है । सम्प्रत्यय का आधार अनुभव होता है
।” – क्रो एंड क्रो
4. सम्प्रत्यय बालक के व्यवहार को निर्धारित करते
हैं । उदाहरण के लिए बालक मस्तिष्क में परिवार का सम्प्रत्यय (मानसिक
प्रतिमा) यदि अच्छा और अनुक्रम विकसित हुआ है, तो बालक अपने परिवार के अन्य
सदस्यों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा और परिवार से संबंधित सभी कार्य
उत्तरदायित्व से करेगा । परिवार के सभी सदस्यों का आदर करेगा तथा परिवार
में वह प्रत्येक प्रकार से समायोजित होगा ।
सम्प्रत्यय निर्माण प्रविधि —
सम्प्रत्यय निर्माण में बच्चों को पाँच स्तरों से गुजरना पड़ता है । यथा —
1. निरिक्षण – निरिक्षण के द्वारा बच्चें किसी वस्तु के सम्प्रत्यय का निर्माण करता है ।
2. तुलना – छात्र निरिक्षण द्वारा बनें विभिन्न सम्प्रत्ययों में तुलना करता है ।
3. पृथक्करण – छात्र दो सम्प्रत्ययों के बीच समानता और भिन्नता की बातों को पृथक करता है ।
4. सामान्यीकरण – इसमें छात्र किसी वस्तु का सम्प्रत्यय (प्रतिमा) का स्पष्ट रूप धारण कर लेता है ।
5. परिभाषा निर्माण – छात्र के उपर्युक्त चारों स्तरों से गुजरने के बाद वास्तविक सम्प्रत्यय का निर्माण उसके मन में बनता है ।
सम्प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक –
1. ज्ञानेन्द्रियाँ 2. बौद्धिक क्षमता 3. परिपक्वता 4. सीखने के अवसर 5. समायोजन 6. अन्य कारक – अनुभवों के प्रकार, लिंग, समय आदि ।
अनुसंधान विधि (Discovery Methods)
1. इस विधि को खोज या अन्वेषण विधि भी कहते हैं ।
2. प्रो• एच• ई• आर्मस्ट्रांग ने विज्ञान शिक्षण विधि में इस अनुसंधान विधि का सुत्रपात किया ।
3. इस विधि का आधार आर्मस्ट्राग ने हरबर्ट स्पेन्सर के इस कथन पर रखा कि ”
बालकों को जितना संभव हो, बताया जाए और उनको जितना अधिक संभव हो, खोजने के
लिए प्रोत्साहित किया जाए ।”
4. इस विधि का प्रमुख उद्देश्य बालकों में खोज की प्रवृत्ति का उदय करना है ।
5. इस विधि में छात्र पर ज्ञान उपर से लादा नही जाता, उन्हें स्वयं सत्य की खोज के लिए प्रेरित किया जाता है ।
6. अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बच्चे को कम से कम बताएं और उसे स्वयं अधिक से अधिक सत्य प्राप्त करने का अवसर प्रदान करें ।
अनुसंधान विधि की कार्यप्रणाली —
1. इस विधि में छात्र के सामने कोई समस्या प्रस्तुत की जाती है । प्रत्येक
बालक को व्यक्तिगत रूप से कार्य करने की स्वतंत्रता दी जाती है ।
2. आवश्यकता पड़ने पर बालक परस्पर वाद विवाद करते हैं, प्रश्न पुते हैं तथा पुस्तकालय में जाकर पुस्तक देखते है ।
अनुसंधान विधि के गुण —
1. बालको को स्वयं करके सीखने को प्रेरित करती है ।
2. छात्रों में वैज्ञानिक अभिरूचि तथा दृष्टिकोण उत्पन्न करती है ।
3. छात्रों में स्वाध्याय की आदत बनती है ।
4. छात्र क्रियाशील रहते है, जिससे अर्जित ज्ञान स्थायी होता है ।
5. छात्रों में परिश्रम करने की आदत पड़ जाती है ।
6. छात्रों में आत्मानुशासन, आत्म संयम तथा आत्मविश्वास जागृत होता है ।
7. सफलता प्राप्त करने पर छात्र उत्साही होते है तथा उन्हें प्रेरणा मिलती हैं ।
अनुसंधान विधि के दोष —
1. छोटी कक्षाओं के लिए अनुसंधान विधि उपर्युक्त नहीं है क्योंकि तार्किक व निरिक्षण शक्ति का विकास छोटे बच्चों में नहीं हो पाता ।
2. इस शिक्षण विधि में मंद बुद्धि विधार्थी आगे नही बढ़ पाते हैं तथा पाठ्यक्रम धीरे – धीरे आगे बढ़ते है ।
3. यह विधि प्रतिभावान बच्चों के लिए उपयुक्त है । पूरी कक्षा के लिए नहीं ।
4. प्राथमिक स्तर के बालक समस्या का विश्लेषण करने में असमर्थ होते है ।
पर्यटन विधि
1. पर्यटन विधि छात्रों को प्रत्यक्ष ज्ञान देने के सिद्धांत पर आधारित है ।
2. इस विधि में छात्रों को का की चारदीवारी मे नियंत्रित शिक्षा न देकर स्थान – स्थान पर घुमाकर शिक्षा दी जाती है ।
3. पर्यटन के द्वारा बच्चें स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करते हैं ।
4. पेस्टालाॅजी पर्यटन विधि के जन्मदाता माने जाते हैं । यद्यपि महान
दार्शनिक रूसो ने भी पर्यटन को बालकों की शिक्षा का एक प्रमुख साधन माना है
।
पर्यटन विधि के लाभ —
1. कक्षा तथा प्रयोगशाला में पढ़ी हुई
बातों, तथ्यों, वस्तुओं, सिद्धांतों एवं नियमों का बाह्य जगत में आकर
स्पष्टीकरण करने का अवसर मिलता है ।
2. पर्यटन विधि द्वारा विज्ञान शिक्षण को सरल, बोधगम्य तथा आकर्षक बनाया जा सकता है ।
3. पर्यटन विधि द्वारा छात्रों में निरिक्षण करने की योग्यता का विकास होता है ।
4. पर्यटन विधि से छात्र मिलकर काम करना सीखते है ।
5. छात्र अपने ज्ञान को क्रमबद्ध तथा सुव्यवस्थित करना सीखते है ।
6. इस विधि में छात्र पर्यटन के साथ – साथ मनोरंजन होने के कारण बालक मानसिक रूप से थकते नहीं है ।
पर्यटन विधि के दोष —
1. इस विधि द्वारा प्रत्येक प्रकरण का अध्ययन संभव नहीं है ।
2. इसकी सफलता के लिए शिक्षक तथा छात्रों में सहयोग जरूरी है ।
3. पर्यटन के लिए उचित मात्रा में धन की जरूरत होती है ।
प्रयोगशाला विधि
1. इस विधि में छात्र प्रयोगशाला में स्वयं करके सीखना सिद्धांत पर सीखता
है अर्थात छात्र स्वयं प्रयोग करता है, निरिक्षण करता है और परिणाम निकालता
है । इससे छात्र सक्रिय रहते है ।
2. इस विधि में छात्र को कोई शंका या कठिनाई होती है, तो शिक्षक उसका समाधान करता है ।
3. इस विधि में छात्र अधिकतम सक्रिय रहता है जबकि शिक्षक निरीक्षण करते रहते है ।
प्रयोगशाला विधि के लाभ —
1. प्रयोगशाला विधि करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित है ।
2. इस विधि में छात्रों में निरिक्षण, परीक्षण, चिंतन, तर्क आदि कुशलताओं
का विकास किया जा सकता है जो विज्ञान शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य है ।
3. छात्रों को अधिकाधिक ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग का अवसर मिलता है । इस प्रकार प्राप्त इन अधिक स्थाई होता है ।
4. प्रयोगशाला विधि द्वारा छात्रों को वैज्ञानिक विधियों में प्रशिक्षित कर सकते हैं ।
5. इस विधि द्वारा वैज्ञानिक अभिवृद्धि का विकास किया जा सकता है ।
प्रयोगशाला विधि के दोष —
1. प्रयोगशाला विधि में छोटी कक्षाओं के छात्र कठिनाई महसूस करते हैं ।
2. इस विधि से उच्च स्तर का शिक्षण ही संभव हैं ।
3. अध्यापक के सक्रिय न होने पर यह विधि सफल नही हो सकती ।
4. यह विधि अंत्यत खर्चीली हैं ।
अवलोकन विधि
1. इस विधि में छात्र स्वयं निरिक्षण कर वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
2. विज्ञान शिक्षण में छात्र प्रत्येक संभावित तथ्य को देखकर, छूकर,
स्पर्श करके और चख कर निरीक्षण करता है, जिसके आधार पर वस्तुओं अथवा
पदार्थों के गुणों का वर्णन करने में समर्थ होते हैं ।
3. अवलोकन विधि में निरीक्षण करने की प्रक्रिया को अधिक व्यवस्थित, सबल व प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है ।
अवलोकन विधि के गुण – –
1. इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी तथा स्पष्ट होता है ।
2. यह विधि स्वयं करके सीखने पर आधारित होने के कारण विषय को रोचक बनाती हैं ।
3. इस विधि में छात्रों को स्वतंत्र रूप से देखने, सोचने तथा तर्क करने का अवसर मिलता है ।
4. छात्रों की विचार प्रकट करने, अभिव्यक्ति प्रकट करने की प्रवृत्ति का विकास होता है ।
5. छात्रों में करके सीखने की आदत का विकास होता है ।
अवलोकन के समय ध्यान देने योग्य बातें – –
1. छात्रों को अवलोकन हेतु प्रेरित करने से पहले अध्यापक को स्वयं भलीभाँति अवलोकन करना चाहिए ।
2. अवलोकन के सभी कार्य प्रजातांत्रिक वातावरण में होने चाहिए ।
3. आवश्यकतानुसार अध्यापक को अवलोकन के समय बीच – बीच में प्रश्न करते रहना चाहिए ।
अवलोकन विधि के गुण – –
1. हर स्तर पर अवलोकन नही कर सकते ।
2. समूह का आकार बड़ा होने पर सभी छात्र प्रदर्शन को नहीं देख पाते हैं जिससे वे अवलोकन नहीं कर पाते ।
3. एक ही समय में कई प्रयोग प्रदर्शन दिखाए जाते हैं जिससे छोटी कक्षाओं के छात्र समझ नहीं पाते ।
प्रश्नोंत्तर परिचर्चा विधि ( Discussion Methods )
1. प्रश्नोत्तर परिचर्चा विधि का प्रयोग की रूपों में होता है जैसे – वाद विवाद, विचार गोष्ठी, दल चर्चा आदि ।
2. इस विधि का उपयोग तब किया जाता है जब सभी विधार्थियों को विचार विमर्श में सीधे रूप में सम्मिलित करना संभव हो ।
3. इस विधि में कुछ छात्र दिए गए विषय या समस्या के विभिन्न पक्षों पर
संक्षेप में भाषण तैयार करते हैं तथा शिक्षक की अध्यक्षता में भाषण देते
हैं ।
4. भाषण के उपरान्त शिक्षक शेष छात्रों से प्रश्न आमंत्रित करता है ।
5. जहाँ कहीं जरूरत होती है, शिक्षक सही उत्तर देने में संपूर्ण कार्यक्रम में मार्गदर्शन करता हैं ।
प्रश्नोत्तरी परिचर्चा विधि के गुण – –
1. इस विधि में छात्रों में आत्माभिव्यक्ति का विकास होता है ।
2. इस विधि में छात्रों में नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण मिलता हैं ।
3. छात्रों में व्यापक दृष्टिकोण का विकास होता हैं ।
4. आलोचनात्मक चिंतन, तर्क आदि क्षमताओं का विकास किया जा सकता है ।
5. परस्पर सहयोग करने की भावना का विकास होता हैं ।
प्रश्नोत्तर परिचर्चा विधि के दोष – –
1. प्रारंभिक कक्षाओं में छात्रों की अभिव्यक्ति स्तर की नहीं होती है, अतः प्रयोग करना कठिन होता हैं ।
2. प्रश्नोंत्तर विधि में पाठ्यवस्तु का विकास धीमी गति से होता है ।
3. इस विधि में एक अच्छे पुस्तकालय की सुविधा होनी चाहिए ताकि विधार्थी विचार विमर्श से पहले अध्ययन कर सकें ।
4. इस विधि का प्रयोग करने के लिए कुशल व योग्य शिक्षकों की आवश्यकता होती है ।
समस्या समाधान विधि (Problem Solving Method)
1. यह ह्युरिस्टिक विधि की तरह है जो काम करो और सीखो के सिद्धांत पर आधारित है ।
2. इस विधि से छात्रों में समस्या हल करने की क्षमता विकसित होती है ।
3. यह विधि छात्रों में चिंतन तथा तर्कशक्ति का विकास करती हैं ।
4. “समस्या विधि निर्देश की वह विधि है जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया
को उन चुनौती पूर्ण स्थितियों के द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है जिनका
समाधान करना आवश्यक है ।” – वुड
समस्या समाधान विधि के चरण —
1. समस्या विधि का चयन – अध्यापक व विधार्थी मिलकर समस्या का चयन करते हैं ।
2. समस्या चयन का कारण — विधार्थियों को बताया जाता है कि समस्या का चयन क्यों किया गया है ?
3. समस्या को पूर्ण करना – समस्त विधार्थी अध्यापक के मार्गदर्शन में समस्या के समाधान हेतू कार्य करते है ।
4. समस्या को हल करना — अंत में विधार्थी समस्या का हल खोज लेते है, यह हल प्रामाणिक या परिलक्षित लक्ष्यों पर आधारित होता हैं ।
5. हर या समाधान का प्रयोग — विधार्थी प्रामाणिक समाधान का प्रयोग करते हैं ।
समस्या समाधान विधि के गुण —
1. समस्या समाधान विधि विधार्थियों में विचार तथा निर्णय शक्ति का विकास करती हैं ।
2. इस विधि में छात्र सामुहिक निर्णय लेना सीखते हैं ।
3. छात्रों में वैज्ञानिक ढंग से चिंतन करने की क्षमता का विकास होता हैं ।
4. यह विधि स्वाध्याय का विकास करती हैं तथा प्रशिक्षण प्रदान करती है ।
5. यह विधि छात्रों की भावी योजनाओं के समस्याओं को हल करने का प्रशिक्षण देती हैं ।
समस्या समाधान विधि के गुण —
1. समस्या समाधान विधि का प्रयोग छोटी कक्षाओं के लिए नहीं किया जा सकता हैं ।
2. इस विधि में जरूरी नहीं है कि विधार्थियों द्वारा निकाले गए परिणाम संतोषजनक हो ।
3. इस विधि का प्रयोग कुशल अध्यापक ही कर सकते हैं, सामान्य स्तर के अध्यापक नहीं ।
4. इस विधि में पर्याप्त समय लगता हैं ।
सामान्य विज्ञान शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में —
1. ज्ञान (Knowledge)
— छात्रों को उन तथ्यों, सिद्धांतों व विधियों का ज्ञान प्रदान करना है जो
विज्ञान से संबंधित हैं । इससे बालक के व्यवहार में निम्नलिखित परिवर्तन
होगे —
A. विज्ञान के नवीन शब्दों की जानकारी प्राप्त कर छात्र वैज्ञानिक भाषा में तथ्यों का वर्णन कर सकेंगे ।
B. छात्र अपने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान को प्राप्त व व्यक्त कर सकेंगे ।
C. वैज्ञानिक परिभाषाएँ तथा सिद्धांतों से परिचित होकर उनमें पारस्परिक संबंध स्थापित कर सकेंगे ।
2. अवबोध (Understanding)
— इससे बालक में निम्नलिखित परिवर्तन आएगें – A. छात्र वैज्ञानिक विचारों
तथा संबंधों को अपनी भाषा में व्यक्त करता है तथा विभिन्न तथ्यों में
परस्पर तुलना कर सकता हैं ।
B. कारण तथा प्रभाव संबंध को स्पष्ट कर सकता हैं ।
3. ज्ञानापयोग (Application) – छात्र अपरिचित समस्याओं को समझने एवं उन्हें हल करने में सामान्य विज्ञान के ज्ञान का उपयोग करता है ।
4. कौशल (Skill)
— छात्रों में चार्ट एवं चित्र बनाने तथा उनमें प्रयोग करने का कौशल
उत्पन्न हो जाता है । इसके अंतर्गत उसमें निम्न परिवर्तन होते हैं —
A. पर्यावरण से संबंधित तथ्यों व वस्तुओं का कुशलतापूर्वक प्रयोग करने की योग्यता प्राप्त करता है ।
B. उपकरणों को प्रयोग में लाने, परीक्षण करके परिणाम निकालने, उनमें होने वाले दोषों को दूर करने की कुशलता प्राप्त करता हैं ।
5. अभिवृति (Attitude) — A. बालक विभिन्न परिस्थितियों में शीघ्र व सही निर्णय ले सकता है ।
B. अंधविश्वासों व पूर्वाग्रहों को वैज्ञानिक विधि से दूर करने में सहायता प्राप्त होती हैं ।
C. विज्ञान से संबंधित तथ्यों का सूक्ष्म निरीक्षण करता हैं ।
6. अभिरुचि (Interest) — A. विधालय की वैज्ञानिक प्रवृत्तियों जैसे — विज्ञान मेला, विज्ञान प्रदर्शनी, विज्ञान क्विज आदि में सक्रिय भाग लेता हैं ।
B. विज्ञान के दैनिक उपयोग संबंधी कार्यों में रूचि लेता हैं ।
7. प्रशंसा (Appriciation)
— वैज्ञानिक आविष्कारों एवं खोजों के मानव जीवन में योगदान की प्रशंसा
करता है । वैज्ञानिकोंके जीवन की घटनाओं की सराहना कर उनसे प्रेरणा लेता है
।
NCERT के शब्दों में Þहमारे शैक्षिक उद्देश्य वे परिवर्तन है जो हम बालक में लाना चाहते है ।
विज्ञान शिक्षण के प्रमुख उपकरण —1. मैजिक लेण्टर्न — इसके द्वारा छोटे चित्रों को बड़ा करके पर्दे पर प्रदर्शित किया जाता है । इसमें पारदर्शी शीशे की स्लाइड प्रयोग में लाई जाती हैं ।
2. एपिस्कोप – इस उपकरण द्वारा पुस्तक, पत्रिका आदि के चित्र, रेखाचित्र तथा ग्राफ आदि के सूक्ष्म रूप को पर्दे पर बड़ा करके दिखाया जाता हैं । इसमें स्लाइड बनाने की आवश्यकता नही पड़ती
3. एपिडायस्कोप – इस यंत्र द्वारा मैजिक लेण्टर्न तथा एपिस्कोप दोनों के काम किए जाते हैं ।
4. प्रतिमान (माडल) — जब प्रत्यक्ष वस्तु बहुत बड़ी हो, कि कक्षा में लाना असंभव हो, अथवा इतनी छोटी हो कि दिखाई ही न पड़े, तब माडल का प्रयोग किया जाता है । इंजन, हवाई जहाज, छोटे जीव जन्तु, जीवाणु, इलैक्ट्रोनिक सामान, मानव ह्रदय आदि का अध्ययन माडल के सहयोग से किया जाता हैं ।
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